अधूरा सपना
“मां जी, कुछ खाने को मिलेगा?” सपना ने पुकार सुनकर दरवाजा खोला तो एक कन्या को खड़ा पाया. दुर्गा अष्टमी के दिन कन्या के रूप में खुद देवी दुर्गा मेरे घर में आ गई है, वह बहुत प्रसन्न हुई. झट से उसने “हां बेटी अवश्य खाने को मिलेगा, आजा अंदर आजा.” कहकर उसने पहले से बिछाए हुए आसन पर कन्या को बिठाया. उसके पांव पखारकर चरणामृत लिया और उसके सामने भोजन परोस दिया. वह सामने बैठकर बड़े प्रेम से पंखा झलने लगी.
कन्या ने जैसे ही पहली पूड़ी को तोड़ा, उसमें से खून निकल आया. कन्या कभी पूड़ी को देखती कभी सपना को! सपना भी हैरान थी, कि ये क्या हो गया?
“तुझे मां कहते हुए मुझे शर्म आ रही है, पर ये मेरा खून है, जिसे बेटे की चाहत में तूने जन्मने से पहले ही मार दिया था!”
सपना ने कन्या को दूसरी पूड़ी दी. कन्या ने जैसे ही उस पूड़ी को तोड़ा, उसमें से भी खून की धारा!
“ये उस कली का खून है, जिसे पापा और दादी के लाख मना करने के बावजूद फूल बनने से पहले ही मसल दिया था.”
तीसरी पूड़ी का भी वही हाल!
“यह उस दीपक का खेल है, जिसे डॉक्टर ऑन्टी के बहुत मना करने के बावजूद कुलदीपक की चाहत में तूने जलने ही नहीं दिया!”
कन्या अंतर्ध्यान हो गई, सपना का कन्यापूजन अधूरा रह गया.
“मैंने अच्छी तरह जांच कर ली है, इतनी बार गर्भपात करवाने के बाद अब आप मां नहीं बन सकतीं.” डॉक्टर ने कहा.
सपना का सपना अधूरा ही रह गया था.