कुछ रिश्ते
मिल जाते हैं कुछ अनजान
हो जाती फिर जान पहचान
शायद रह गया कुछ अधूरा सा
दे जाते वह अपने निशान|
सभी रिश्तो से है यह परे
उनको परिभाषित कैसे करें
चाह नहीं कुछ भी पाने की
ख्यालों में वो ही उभरे|
दिनचर्या का वह अभिन्न अंग
दो पल का ही मिलता है संग
छोड़ जाते वो निशान गहरे
जैसे मेहंदी छोड़ जाती है रंग|
शायद ही हम कभी मिले
टूटे ना कभी यह सिलसिले
सफर है सुप्रभात से शुभ रात्रि का
क्यों नहीं इसे हंस कर जी लें|
— सविता सिंह मीरा