नफरत फैलाने का नाम “बुद्ध” नहीं
दिल्ली में एक सार्वजनिक स्थल पर आयोजन दशहरे के दिन होता है, जिसमें सार्वजनिक रूप से हजारों की संख्या में सदस्यों को बौद्ध धर्म की शपथ दिलाई जाती है। परंतु इस शपथ में सनातन धर्म के विरुद्ध इतना विष वमन होता है जिसका कोई परिमाप नहीं। शपथ में ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि किसी भी देवता को ना मानने का संकल्प दिलाया जाता है, साथ ही यज्ञ आदि किसी भी धार्मिक अनुष्ठान में सम्मिलित ना होने का संकल्प दिलाया जाता है, सनातन धर्म के किसी भी देवी देवता को ना मानने का संकल्प दिलाया जाता है, गाय को माता ना मानकर केवल पशु मानने का संकल्प दिलाया जाता है। क्या बौद्ध पंथ की दीक्षा यही है ? क्या सिद्धार्थ इसी उद्देश्य को लेकर बुद्ध बने थे ? यदि आज इस युग के अपने अनुयायियों को बुद्ध भी देखते तो लज्जित हो जाते। क्योंकि बुद्ध होने में बहुत तप, संययम और संघर्ष लगता है, जो संघर्ष स्वयं की इच्छाओं इंद्रियों व आंतरिक विचारों से करना पड़ता है। परंतु नफरत या घृणा फैलाने का काम बुद्ध का नहीं है, यह निश्चित रूप में आसुरी प्रवृत्ति के कुछ लोग हैं जो तथाकथित रूप से बुद्ध के अनुयायी बनकर समाज को भ्रमित करने समाज को तोड़ने के षड्यंत्र में लगे हुए हैं। केवल भगवा वस्त्र धारण करके कोई बुद्ध के मार्ग का अनुसरण नहीं कर पाता, उसके लिए मन कर्म विचारों में सभी के लिए समानता और सद्भाव लाना जरूरी है। जो सबके लिए समान है वही तो बुद्ध है वरना बुद्ध के नाम का सहारा लेकर समाज को तोड़ने का काम केवल आसुरी प्रवृत्ति ही कर सकती है। ऐसे आयोजनों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए, देश की राजधानी में ऐसे आयोजन हुआ और उसमें नफरत व घृणा के इतने निचले स्तर के विचारों का हजारों की संख्या में लोगों का एकत्र होना, समाज को तोड़ने के एक बड़े षड्यंत्र की ओर इशारा करता है। बौद्ध पंथ अवश्य सनातन धर्म से निकला है, परन्तु कुछ तथाकथित भगवा वस्त्र लपेटे कुटिल कपटी असुरों के कारण आज बुद्ध के व्यापक विचार को कुंठित और संकुचित बनाने का षड्यंत्र किया जा रहा है, इसे रोका जाना चाहिए, ऐसी सभी संस्थाओं व लोगों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए जो इस तरह के षड्यंत्र में लगे है।
— मंगलेश सोनी