धर्मों की आड़ में इंसान, चलता कुचाली चाल देखा।
चहुँ और फैला था ज़मी पे, रंग लहू का लाल देखा।
लड़ लड़ के मर रहे थे, अपने अपने महजब के राही,
तड़फ रही मां के सीने का, बेमौत मरता लाल देखा।
सींच कर पाला था जिस को, बड़े शौक से माली नें,
नोच डाला काफिरों नें, एक बगिया का गुलाल देखा।
दंगा फसाद महजब तो अब बन गया एक खिलौना है,
इंसान बना दरिंदा खुद में, ऐसा आज का हाल देखा।
इंसान हैवान बना फिरता, मार काट आज पेशा हुआ,
राजनीति का घटिया मुखौटा,पहने यहाँ दलाल देखा।
आजाद देश में अब घुटन, गुलामी की तरह बढ़ रही,
गरीब पीसता चक्की में है, नेता को लालो लाल देखा।
मौज मारते नशे के सौदागर,आशीर्वाद उपर से मिलता,
बेकार आदमी निखट्टू अनपढ़, आज मालो माल देखा।
डिग्रियां ले कल सड़क नापता,रोज़गार की हालत मंदी,
फट्टे हाल बदहवास घूमता, इस देश का है लाल देखा।
धन -दौलत पास है जिन के, अय्याशी के अड्डे उन के,
अवला की इज्जत लूटें, वहशियों का माया जाल देखा।
सुबह मिली तो शाम की सोचे, दर दर रोटी मांग रहा है,
मर मर के नित जी रहा है, गरीब बेचारा बेहाल देखा।
— शिव सन्याल