दीया निराला
जिसने जग को दिया उजाला।
कहलाता वह दीया निराला।।
करता दूर अँधेरा सारा।
भले गगन में ऊपर तारा।।
जुगनू भी होता मतवाला।
कहलाता वह दीया निराला।
जब तक रहे तेल सँग बाती।
उजियारा तम में ले आती।।
मिटता जाता है तम काला।
कहलाता वह दीया निराला।।
दिया बनें दाता कहलाएँ।
अपनी क्षमता को जतलाएँ।।
ज्यों सुगन्ध फैलाती माला।।
कहलाता वह दीया निराला।।
सूरज चाँद गगन में चमकें।
दिवस रात में दोनों दमकें।।
नहीं ज्योति पर कोई ताला।
कहलाता वह दीया निराला।।
माटी से हर दीपक बनता।
कड़ी आग को सहता तपता।।
लाल हुआ जब गया निकाला।
कहलाता वह दीया निराला।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’