मँहगाई के पाँव
हमने आज शहर में देखे, मँहगाई के पाँव।
पास दीवाली आती देखी, बाजारों में पहुँचे।
मुनिया के कुछ कपड़े ले लें, मन में ऐसा सोचे।।
जेब नहीं थी भारी। आँखें खुलीं हमारी।।
एक फ्रॉक की कीमत पूछी, भूल गए निज गाँव।
नमक – मिर्च से खाते रोटी, सोचा ले लें गोभी।
पूछा भाव किलो भर सौ की, भूल गए – था जो भी।।
क्यों कैसे हम आए! बहुत बुरे पछताए।।
चमक देख चुँधिआई आँखें, लगा उलट ही दाँव।
सोचा एक खिलौना ले लें, खुश हो जाए मुनिया।
साड़ी भी तो एक चाहिए, बाट जोहती धनिया।।
लिया न एक खिलौना। नन्हा – सा है छौना।।
जाते जहाँ वहीं से आते, भूले अपना नाँव।
समझ रहे थे शहरी हमको, ऊँट आया हो गाँव।
मची हुई थी जहाँ देखता, कौवों की काँव -काँव।।
ऊँचे महल ,अटारी। मोटर, कारें, लारी।।
‘शुभम्’ प्यास से गला सूखता, नहीं सड़क पर छाँव।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’