व्यंग्य – उनका शगुन बिगाड़ें !अपनी नाक कटवाएँ !
दूसरों को देखकर ,जी हाँ, मात्र देखकर जलने लगना ,मानव स्वभाव है।’स्व’ अर्थात अपना भाव है।अर्थात यह भाव किसी अन्य का चोरित या अपहृत भाव नहीं ; अपना ही भाव है।इसे दूसरे शब्दों में ‘अंतर डाह’ की संज्ञा से सुशोभित किया जा सकता है। शब्द के उदर में प्रवेश करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव का यह एक ऐसा ‘प्रिय भाव’ है ;जिसके बिना उसका ‘सुख?’ पूर्वक जीना प्रायः दूभर ही हो जाता है।इसलिए यह भाव अर्थात ‘अंतर डाह'(अंतर दाह) उसे कभी अकेला नहीं छोड़ता। सदा उसके साथ ही रहता है।
अब आप कहेंगे /कहेंगीं कि भला यह ‘अंतर डाह’ कहाँ- कहाँ पाया जाता है? तो प्रत्युत्तर में यही कहूँगा कि कहाँ नहीं पाया जाता? ‘जहाँ जहाँ पैर पड़े संतन के तहँ – तँह बंटाढार’ के अनुसार जहाँ- जहाँ आदमी (औरत भी) तहाँ – तहाँ महाशय ‘बंटाढार’ अर्थात ‘अंतर डाह’ अर्थात ‘परस्पर जलन’ भी मिलना अनिवार्य ही नहीं स्वाभाविक है। अब आपको इसकी विशद व्याख्या करना भी आवश्यक हो गया है कि यह कहाँ-कहाँ,क्यों औऱ कैसे-कैसे पाया जाता है।
घर से लेकर बाहर,नारी से लेकर नर,गाँव से लेकर नगर -नगर,डगर- डगर, अपने अड़ोस-पड़ोस, परिवार,समाज, देश -देश, सास- बहू,नर -नारी , नारी- नारी (नारि न मोह नारि के रूपा), बहन – बहन, अधिकारी – अधिकारी,नेता नेता, नेत्री – नेत्री, अभिनेता -अभिनेता (उत्तरी ध्रुव का उत्तरी ध्रुव से विकर्षण के कारण),अभिनेत्री -अभीनेत्री (दक्षिणी ध्रुव का दक्षिणी ध्रुव से विकर्षण के कारण),कवि,लेखक ,पत्रकार,कर्मचारी -कर्मचारी, वकील -वकील ,डॉक्टर – डॉक्टर, इंजीनियर – इंजीनियर, ठेकेदार -ठेकेदार, छात्र – छात्र ,शिक्षक -शिक्षक, धनी-निर्धन, महल-झोंपड़ी आदि -आदि ;बल्कि यों कहें कि इस ‘अंतर डाह’ का कहाँ निवास नहीं है? जहाँ दिल वहीं दिलदार, दिलों की बहार, जो नहीं मानती कभी भी हार।
‘अन्तर डाह’ के व्यापक क्षेत्र को जानने के बाद भी प्रथम दृष्टया यह जिज्ञासा भी स्वाभाविक है कि यह होती ही क्यों है? औऱ यदि नहीं होती तो क्या होता? विचार करने पर ज्ञात होता है कि ‘अंतर डाह’ किसी सामने वाले को देखकर इसलिए पैदा होती है कि जितनी ऊँचाई इसकी है ,मेरी क्यों नहीं? अब वह प्रयास करके भी उसके समान या उससे बढ़कर नहीं बन सकता ,इसलिए चुपचाप भीतर ही भीतर किसी उपले की तरह सुलगता हुआ अपना धुँआ आप ही ग्रहण करता हुआ जीता रहता है।जिस प्रकार एक अंगारा किसी अन्य वस्तु को जलाने से पूर्व जब तक स्वयं पूरी तरह जलकर खाक नहीं हो जाता ,तब तक किसी को जला नहीं पाता।इस प्रकार नर और नारी भीतर ही भीतर सुलगते रहते हैं।सामने वाले के समान हो नहीं पाते और सुलगकर तसल्ली का सुख लेते हुए जीने को विवश होते हैं।
कोई यदि यह कहे कि क्या यह अदृश्य आग दिखाई भी देती है?जी हाँ, कुछ लोगों की वार्ता, कृत्य और कुछ लोगों की आँखों में स्पष्ट दिखाई भी देती है। जिनकी आँखों में दिखाई नहीं देती ,वह बहुत भयंकर ईर्ष्यालु होता है औऱ कभी भी ईर्ष्या वश कुछ ऐसा कर बैठता है कि वह सामने वाले का अहित करने पर उतारू हो जाता है।बाँझ स्त्री किसी के बच्चे को जहर दे देती है, मरवा देती है या उसी स्त्री के साथ ऐसा टोना- टोटका भी करवाती है कि उसका किसी न किसी प्रकार से अहित हो ही जाए। अपना कूड़ा – कचरा दूसरे के घर के पास फेंकना भी ‘अंतर डाह’ का एक प्रतिफल है।
ज्यों-ज्यों मानव विकास की सीढ़ियों पर चढ़ता जा रहा है,उसी क्रम में यह ‘अंतर डाह'(ईर्ष्या ) ,की वृत्ति भी बढ़ती चली जा रही है। जिसका कहीं भी कोई अंत नहीं है।यदि यह नहीं होती तो स्वर्ग की खोज के लिए अन्यत्र नहीं जाना पड़ता। इस ‘अंतर डाह’ ने धरती पर साक्षात नरक का निर्माण कर दिया है।यूक्रेन से रूस ‘अंतर डाह’रखता है ,जिसका परिणाम सामने है। चीन ,पाकिस्तान और भारत के अंतर संबंध जग जाहिर हैं,कि यहाँ कभी भी अमन चैन की वंशी कृष्ण कन्हैया का देश होने के बावजूद नहीं बज सकती।जब वंशी बजते -बजते हुए भी महाभारत का युद्ध भी होकर रहा ,तो अब तो मात्र वंशी ही रह गई है। वह वंशीधारी कृष्ण का वंश ही नहीं रहा।
हर व्यक्ति की ‘अंतर डाह’ के अलग -अलग कारण हो सकते हैं,जो किसी सूक्ष्मदर्शी यंत्र के बिना देखे नहीं जा सकते। ये पृथक शोध का विषय है कि किसी की किसी से ‘अंतर डाह’ है ही क्यों? वह अवश्य ही किसी न किसी रूप में उसके मन को शांति ही देती होगी।
यदि सामने वाले का शगुन बिगड़ जाए तो आदमी अपनी नाक को भी सहर्ष कटवाने को तैयार बैठा रहता है।सोचिए ऐसे समाज सेवी, ‘देशभक्त?’ मानव भक्त, आदि से क्या कोई सकारात्मक आशा की जा सकती है? मुखौटे लगाकर ये सभी केवल कोरा स्वांग दिखाते हैं।ये जनहित , समाजहित औऱ देशहित कदापि नहीं कर सकते।ओट में अपने लिए कुछ अर्जन करना ही इनका लक्ष्य होता है।
प्रसंगवश एक रोचक जानकारी से अवगत कराना भी व्यंग्यकार अपना धर्म समझता है।वह यह है कि स्व- शोध के अनुसार निष्कर्ष यह है कि पुरुषों की अपेक्षा नारियों में इस ‘महाभाव ?’ की मात्रा,भार,संख्या,लंबाई , चौड़ाई और ऊँचाई बहुत अधिक होती है।हो सकता है कि कुछ ‘महानारियाँ’ यह बात पढ़कर मुझे भी अपनी ‘अन्तरडाह’ का पात्र मान लें। कोई बात नहीं, किंतु यह व्यंग्यकार सचाई कहने में किसी से भी डरता नहीं है ,तो आपसे ही भला क्यों डरे!आप तो किसी की सुंदर साड़ी देखकर ही सुलग उठती हैं,और पति को येन- केन -प्रकारेण वैसी ही नहीं ,उससे भी बेहतर साड़ी क्रय करने को बाध्य कर देती हैं।पड़ोसिन के गले में स्वर्ण हार देखकर आपके भीतर का ज्वालामुखी अब फटा कि तब फटा की स्थिति में होने लगता है।खाना-पीना,खाना, बनाना ,देना ;सब बंद करते हुए ‘गृह – हड़ताल’ में पतिदेव का तबला नहीं, तसला बजा डालती हैं। करवा चौथ तभी मनेगी ,जब वैसी साड़ी आएगी। अन्यथा मैं खाना खा लूँगी औऱ ! फिर मेरी ओर से आपकी कोई गारंटी – वारंटी नहीं।
हृदय -हृदय में निवास करने वाली ‘अंतर डाह’ से बड़े -बड़े ज्ञानी, प्रकांड पंडित, साधु- संत,ज्ञान के सागर भी नहीं बच पाए।यह हर एक आम और खास में समान रूप से पाई जाती है। देवी- देवताओं में होती है अथवा नहीं, इसका अनुभव मानव होने के नाते अभी कर नहीं पाया।यदि मानव से देवता हो जाता तो संभवतः इसकी अनुभूति अवश्य हो जाती। क्योंकि आप सबकी तरह कुछ न कुछ मात्रा में मैं व्यंग्यकार भी तो ‘अंतरडाह’ का कृपा पात्र हो सकता हूँ। कभी न कभी मेरे अंतर में भी जागती होगी।इस बार जब जागेगी तो अवश्य उसे पकड़ कर झकझोर दूँगा औऱ पूछूंगा कि यहाँ भी तू आकर अपना आसन जमाने लगी? चल दूर हट, बाहर निकल जा मेरे भीतर से। मैं तुझे दुत्कारता हूँ। धिक्कारता हूँ।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’