व्रत ,पूजा ,उपवास ,कथा
करती चली आ रही है सदियों से
कब सोचा कुछ भी अपने लिए
फिर भी सवाल उठते रहे
कभी दीवारों पर सतिये बना
कभी जमीन पर गेरू से लिपकर
माँगती रही दुआएँ सबके लिए
फिर भी अर्थपूर्ण दृष्टि गड़ती रही
क्या दोष था उसका बेटा न होने का
लोगों के ताने सहती रही
मंदिरों में मन्नत माँगती रही
जैसे सारा दोष उसी का था
बेटियाँ न होती तो किसे माँ कहते तुम
कलाई पर कौन राखी बांध पाता
कौन करता व्रत पूजा उपवास तुम्हारे लिए
करवा चौथ ,अघोई अष्टमी
सब तुम्हारे लिए ही तो हैं
फिर बेटी होना अपराध कैसे हुआ
सुन रहे हो न ध्यान रखना अब
बेटियाँ जब तक तुम्हारे पास हैं
उनका ख्याल रखना
क्योंकि उनका ख्याल रखने वाला
और कोई नहीं सिर्फ तुम ही हो
वो नहीं जीती अपने लिए
समर्पित हैं सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए
— वर्षा वार्ष्णेय