कविता

दुविधा बड़ी भारी

यह दुविधा है बड़ी भारी
क्या करें अबला नारी
कर्तव्य निर्वाह करे जननी का
या पालन करें धर्म भार्या का—-
दोनों छोर है एक डोर की
एक थामे तो दूजा छूट जाए
छुटकारे का कोई मार्ग नहीं
तेरी मर्जी की कोई बात नहीं
दोनों के अस्तित्व से पृथक
तेरी कोई पहचान नहीं ——–
तू बदल नहीं सकती
अपने संतान की भाग्य रेखा
नहीं प्रशस्त कर सकती
उसका कर्तव्य पथ
किन्तु होती निरंतर तूझे पीड़ा
अर्धांगिनी कहलाकर भी
आधा अंग न बन पाती
हर असफलता की उत्तरदाई
तू ठहराई जाती ———
संतान और पति के पाटन
पीस जाता अस्तित्व तेरा
सर्वस्व न्यौछावर करके भी
सदैव रिक्त हस्त तू रह जाती।
— विभा कुमारी “नीरजा”

*विभा कुमारी 'नीरजा'

शिक्षा-हिन्दी में एम ए रुचि-पेन्टिग एवम् पाक-कला वतर्मान निवास-#४७६सेक्टर १५a नोएडा U.P