कविता- जीवन उड़ती पतंग
जीवन भी एक उड़ती पतंग तरह है
कभी इधर लहराती कभी उधर लहराती है
कभी नीचे जाती कभी ऊपर आती है
हवा के रुकने से वो उड़ नहीं पाती है
जब ऐसे में दो पतंग आपस में उलझे
एक पतंग का कटना और गिरना निश्चित समझे
जिस उमंग से पतंग उड़ती वही हवा का झुकाव रखती है
पेंच का ही खेल सही रहता जो सब विधा में माहिर है
पतंग का धागा अगर मजबूत हो तो गिरना नामुकिन है
कोई गाँठ कमजोर न हो ये देखना होता है
वैसे ही जीवन में अगर रिश्ते मजबूत है
खुशहाल जीवन भी उसी का होता है
पतंग भी एक अजीब खेल खेलती है
कभी अपने ही धागे में उलझ कर कट जाती है
वैसे ही रिश्ते भी कभी कभी इतने उलझ जाते है
लाख कोशिश करने बाद सुलझ नहीं पाते है
— पूनम गुप्ता