कविता

आधुनिक अक्रांता मेनकाएं

हर साल आती थी दीवाली जब पहले
घर में बनती थी मिठाइयां टोकरे भरके
खाते पीते खूब पटाखे चलते सब मिलके
अब तो लगी मिठाइयों पे पाबंदी हैं
हम सब मिठाइयां खाएं कहां, जब
डॉक्टर ने बोला मधुमेह हैं में नहीं हैं खानी
खुराक सलाहकार ने बोला वजन बढ़ेगा
इसी लिए उसे नहीं हैं खानी
बीवी हुई खुश बोली बनाऊं क्यों मिठाई लेकिन नहीं समझते
ये सोशल मीडिया के लोग जरा भी
भेज देते हैं थाली में सजा कर मेनका
रंभा सी मन विश्वामित्र को करने विचलित
देख के संयम खो देते हैं सब ही महावीर
Fb पर देखो वही हैं वो जो पलटी पेज
इंस्टा पर देखो फिर वहां भी हैं हाजिर वह
और वाट्स एप तो भरा पड़ा हैं गुलदस्तों सा
हर ग्रुप में या हर एकल खाते में
हाजिर
सजे हुए थाली में टोकरियों में
वही और कौन भांति भांति की मिठाइयां
करती चलित बार बार मन की तपस्या
लड्डू,बर्फी,पेड़े,रसगुल्ले और रसमलाई
पुछों नहीं मिठाइयों ने मन की हालत बनाई
सहा भी नहीं जाएं खाया भी नहीं जाएं
देख देख बस मेरा मन ललचाएं
लालच बुरी बला हैं कह गए हैं बुजुर्ग
लेकिन बार बार बन जाता मैं खुदगर्ज
हुआ बहुत अब कर हिम्मत मैं
पहुंच गया नुक्कड़ वाली हलवाई की दुकान पर
इधर देखा उधर देखा और लिए रसगुल्ले
देख लिया श्रीमती जी के सहेली ने
धड्डले
घर पहुंचा तो बजाय पटाखे बादल ही गरजे
क्या खाया उसी सवालों की मिसाइलें बरसी
याद आई यूक्रेन की हालत, तरस आई
हाथ जोड़ महारानी को मनाई
आगे से नहीं होना हैं चलित,ये विश्वास दिलाया
बाहर आके श्वास राहत की ली
अब सोचा जान बची तो लाखों हैं पाएं
लौट के बुद्धू घर को जो आएं
— जयश्री बिरमी

जयश्री बिर्मी

अहमदाबाद से, निवृत्त उच्च माध्यमिक शिक्षिका। कुछ महीनों से लेखन कार्य शुरू किया हैं।फूड एंड न्यूट्रीशन के बारे में लिखने में ज्यादा महारत है।