ग़ज़ल “सुख की तमन्ना क्या करें”
आम, जामुन, नीम-शीशम, जल गये हैं आग में
कुछ कँटीले पेड़ ही अब, रह गये हैं बाग में
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सुमन तो मुरझा गये हैं, सिर्फ काँटे ही बचे,
प्रीत पहले सी नहीं, अब तो रही अनुराग में
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बढ़ रहे हैं आज जंगल, कंकरीटों के यहाँ
खेत घटते जा रहे हैं, उर्वरा भूभाग में
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थक गया है हाथ-हाथी, आप आगे बढ़ रहा
कमल फिर भी खिल रहे हैं, आज दीन तड़ाग में
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कंटकों की सेज पर, सुख की तमन्ना क्या करें
उम्र सारी कट गयी अब, सिर्फ भागम-भाग में
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ताल जब बेताल हो तो, सुर भला कैसे सधे
खो गया संगीत देशी, शोर वाले राग में
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लग रही अन्धेर नगरी, और चौपट काज है
खा रहे बदमाश काजू, विश्व के अनुभाग में
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बाँटती ठण्डक सभी को, चन्द्रमा की चाँदनी
किन्तु दूषित हो रहा है, “रूप” अब तो दाग में
— डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’