सामाजिक

संसार के सुख दुःख

यूं तो शिखा इनकी बहन हैं लेकिन कॉलेज में मेरे साथ पढ़ती थी तो हम भी सहेलियां ही थी।एक ही वर्ग में एक ही बैंच पर बैठती थी हम,एक ही बास्केटबॉल की टीम में खेलती थी हम।बहुत ही नजदीक हुआ करती थी हम पर जैसे ही इनसे शादी हुई मेरी उसका रवैया बदल गया।घर भरा पूरा था,छे लोगों के साथ एक नौकर सब का खाना एक साथ बनता था।जैसे ही मैं शादी करके आई घर के सभी कामों की जिम्मेवारी मेरी हो गई।सब्जी आदि लाने से सबकी पसंद का खाना पकाना,कपड़े धोना और छोटे देवर और ननंद को पढ़ना जैसे मैं घड़ी के कांटों के संग चल रही थी उतनी देर में शाम के खाने की तैयारी।खाना खाते खाते रात के ग्यारह बज जाते थे।और फिर सुबह छे बजे से दूसरा दिन शुरू हो जाता हैं।
 इन सब कार्यों के बीच शिखा का बेरुखी सा व्यवहार जरा दिल को दुःख पहुंचाता था।कोई भी कार्य में हिस्सा नहीं लेना या कोई सुझाव नहीं देना आदि मन को दुःख पहुंचाता था।ऐसे लगता था कि जैसे वह मुझे पहले से जानती नहीं थी।कोई सहेलपना नहीं दिखता था, जो नजदीकी पहले थी वह अब उसके व्यवहार में दिखती नहीं थी।एक दिन फुफीजी कुछ दिनों के लिए आएं तो घर में रौनक आ गईं थी।दिनचर्या में कुछ फर्क आने से अच्छा लग रहा था।फुफिजी को मैं पसंद आई थी,बात बात और मेरी सराहना करती रहती थी।मेरे बने खाने की,मेरी आदतों की सराहना करना आम बात थी।एक दिन सब घर के सदस्य मंदिर जा रहे थे लेकिन फुफीजी के पांवों में दर्द होने की वजह से जाने से मना कर दिया तो मैंने भी उनका खयाल रखने के इरादे से रुक जाना ही पसंद किया।खाना खा कर आराम करने के लिए कमरे में आएं तो उन्होंने मुझे पूछ ही लिया जो उन्होंने देखा था,” ये शिखा तो तुम्हारी सहेली थी तो क्यों ऐसा बरताव करती हैं तुम से?”मैंने थोड़ा दुःखी होते हुए बताया,” पता नहीं फुफीजी ,पहले कॉलेज में तो बहुत ही अच्छी सहेली थी मेरी,बहुत प्यार था हम दोनों में,कुछ समझ नहीं आ रहा मुझे भी,” थोड़ी देर चुप रह कर बोली,” ये जो तेरा घरवाला हैं न उससे उसकी कभी भी नहीं पटती थी।शायद उसकी वजह से तुझ पर भी खर खाएं रहती होगी।” मैं ने आश्चर्य से उनकी और देखा लेकिन कुछ बोल नहीं पाई।फिर मैंने धीरे से कहा,” फुफीजी,इनका कोई बड़े घर से रिश्ता आया था,वह बात क्या हैं?” फुफीजी थोड़ा सोच बोली,” हुं… ये बात भी हो सकती हैं,तेरे पति ने जिद की थी तुझसे शादी करने की और उसे मना कर दिया था।बहुत दहेज ले के आती वह अगर शादी हो जाती।” अब पूरी बात मुझे भी समझ आ गई कि सारा मामला दहेज का था,मैं तो कुछ ले कर ही नहीं आई थी अगर उस लड़की से शादी होती तो घर भर जाना था,फर्नीचर और तोहफों से और बहुत सारे गहने आदि भी आने थे घर में।दोस्ती से बड़ा मतलब हो गया था,रिश्ते से बढ़ाकर तोहफें बन गाएं थे।मेरी आंखों में गुस्से से ज्यादा करुणा भर गई थी।जो लड़की इतना दहेज ले कर आती वह क्या घर का इतने कम करती? सब को प्यार से रखती घर में?क्या सब के साथ बेगाना बरताव नहीं करती? ये सब सोच बहुत दुःख हुआ था।ये कहानी शायद हर घर की हैं,तेरी मेरी कहानियां एक सी ही होगी।
— जयश्री बिर्मि

जयश्री बिर्मी

अहमदाबाद से, निवृत्त उच्च माध्यमिक शिक्षिका। कुछ महीनों से लेखन कार्य शुरू किया हैं।फूड एंड न्यूट्रीशन के बारे में लिखने में ज्यादा महारत है।