वो आंख नही थी झील कोई
सब मयखाने बेकार लगे अब
नजर ही काफी थी उनकी
अब होश बाकी रहा नही
मय अभी बाकी थी उनकी
वो आंख नही थी झील कोई
देखा तो उसमें डूब गये
लहरों ने मुझको बहा दिया
अब इस दुनियां से ऊब गये
ले चलो मुझे उस साहिल पर-
जहां पे मौजे थे उनकी
एक जाम मिला एक तीर मिला
दोनों ही जीगर के पार हुऐ
अब तक तो अच्छे खासे थे
उस दिन से हम बीमार हुए
बेकार लगे दुनियां मुझको-
सिर्फ अदा ही अच्छी थी उनकी
सोलह सावन उमड़ रहे
उनकी काली घटाओं से
सारे सरगम शर्माएं
बस उनकी ही सदाओं से
क्या “राज” है मौसम बिगड़ गया-
देखा तो जुल्फे खुली थी उनकी
— राज कुमार तिवारी “राज”