ग़ज़ल
बना ले जो तुम्हें अपना वही रसधार बाकी है |
सजा दे गुल से गुलशन जो अभी वो प्याऱ बाकी है |
मुक़म्मल ख्वाब हों जिससे वही तदबीर करनी है,
भरे बाजार में अपना वही किरदार बाकी है |
तुम्हारे जुल्म की आंधी नहीं दीपक बुझा पाई ,
तिमिर की हर शिलाओं पर अभी उजियार बाकी है |
महब्बत इश्क के जज़्बात अब भी दिल में उठते हैं,
अधूरी ख्वाहिशों की आज भी मनुहार बाकी है |
ये नफ़रत के घने साए हमें कब तक डराएंगे
जलाओ नेह के दीपक अभी अंधियार बाकी है |
नज़र में रोशनी भर दे मोहब्बत का असर ऐसा,
मोहब्बत हो गई उनसे अभी इज़हार बाकी है |
ये दिल भी एक दरिया है मोहब्बत बहती है जिसमें,
लरजती भावनाओं की “मृदुल” झंकार बाकी है |
मंजूषा श्रीवास्तव “मृदुल”