ग़ज़ल
खिलाकर फूल महकाकर सजायी जिसने फुलवारी
समर्पित क्यों न कर दें हम उसी को जिन्दगी सारी
सुबह से शाम तक आठों पहर जो साथ रहता है
मेरे अगले सफर की करके जो बैठा है तैयारी
जिसे देखे बिना पलभर भी चुप रहता नहीं ये दिल
छटा उस रूप की सोचो जरा क्यों कर न हो न्यारी
इशारों पर भृकुटि के जो नचाये है समूची सृष्टि
अदा उस हुस्न उस जल्वे की होगी किस कदर प्यारी
वो केवल बन्द आँखों से दिखेगाा खास बन्दों को
ये फतवा भी उसी ने ध्यान में आकर किया जारी
वही तो रोशनी खुशबू की फसलें ‘शान्त’ काटेगा
लहू से आँसुओं से जिसने सींची हो हरेक क्यारी
— देवकी नन्दन ‘शान्त’