जीवन आकांक्षाओं का सागर
मृगतृष्णा से भरी हुई है, लोभ, मोह, और काम की गागर,
इच्छाओं के वशीभूत हम,जीवन आकांक्षाओं का सागर।
बचपन में मन शांत, कोई अभिलाषा न थी।
खेल-कूद के सिवा, कोई जिज्ञासा न थी।
बड़े बनेंगे, कुछ बड़ा करेंगे , सोच में बीते रैन और वासर।
इच्छाओं के वशीभूत हम ,जीवन आकांक्षाओं का सागर।
पर जैसे ही आई जवानी , बैलों जैसी हुई जिंदगानी।
आकांक्षाओं ने पैर पसारे , मृगतृष्णा ने की मनमानी।
नित्य नयी इच्छाएं पनपें, महंगा घर हो महंगी गाड़ी।
बचपन में थे मन के राजा,पर योवन में बने कबाड़ी।
पत्नी और बच्चों ने आकर , मृगतृष्णा का दिया गदागर।
इच्छाओं के वशीभूत हम ,जीवन आकांक्षाओं का सागर।
वृद्धावस्था में जब पहुंचे, आकांक्षाओं का दमन हुआ।
शिकार हुए अपनों के ही, या वृद्धाश्रम आगमन हुआ।
अब न कोई अभिलाषा है, न ही कोई मृगतृष्णा है।
हिय में ईश भजन की इच्छा, मुख में राधे कृष्णा है।
अंतकाल में मुख में रहना, सियाराम और गिरधर नागर।
इच्छाओं के वशीभूत हम ,जीवन आकांक्षाओं का सागर।
स्वरचित एवं मौलिक रचना।
प्रदीप शर्मा ।