ऊँची दुकान-फीका पकवान
दुकान और पकवान दोनों मानव से जुड़ी अति प्राचीन काल से सतत चलने वाली आवश्यकताएँ हैं। दुकान पर माँग – पूर्ति द्वारा कई तरह के पकवान खरीदे जा सकते हैं। पकवान द्वारा उदरभरण के साथ-साथ रसना भी तृप्ति के कई सोपान तय करती है। प्रायः यही धारणा बलवती पायी जाती है कि ऊँची दुकान हो तो चोखा पकवान मिलना चाहिए। हल्की-फुल्की दुकान हो तो फीका पकवान की अपेक्षा रहती है। जब कभी ऊँची दुकान पर फीका पकवान मिलने लगे तो यह मुहावरा आप ही आप मुँह के कैद से दबे पाँव बाहर आ जाता है। लोगबाग कह ही देते हैं, “ऊँची दुकान- फीका पकवान”।
परितः पर्यावरणीय पतन के साथ-साथ साहित्यिक प्रदूषण भी चरमोत्कर्ष पर है। इस संक्रामक बीमारी से कवि सम्मेलन भी बचे नहीं हैं। कविताओं के अभाव से काव्य -मंच जूझ रहे हैं। कवि सम्मेलन में बहुत कुछ है, सब कुछ हो सकता है पर कविता नहीं है। कवि भी नहीं हैं। काव्य-प्रेमी भी नहीं हैं।
लोगों को मनोरंजन चाहिए इसलिए कवि सम्मेलन की ओर खिंचे चले आते हैं। यहाँ मंच पर भाँति-भाँति के विदूषक इंतजार कर रहे होते हैं। दर्शक ताली बजाने को तैयार नहीं और तथाकथित कवि ताली बजवाने में पूरी ताकत झोंक देता है। वह जानता है कि ये तालियाँ ही भावी लिफाफे का वजन तय करेंगी। अगले कार्यक्रम में सहभागी बनाएँगी। इसलिए वह कविता से दूर भागता हुआ पता नहीं कहाँ-कहाँ तक चला जाता है तालीमय उत्प्रेरक खोजने हेतु। उसका बस एक मात्र उद्देश्य होता है, येन-केन प्रकारेण ताली बजवा लेना। इसके लिए वह कविता की भ्रूण हत्या भी कर देता है। ये तो समस्या रही भुटभैयों की। बड़े लोगों की बड़ी बातें। अक्सर बड़े यवसायी कवि अपने पहुँचने से पहले ही अपनों की ताली-फौज स्थापित करा देते हैं जो ताली बजाने में तीसरे जेंडर से भी तेज होते हैं। ये छद्म दर्शक/श्रोता तथाकथित कवि की लाइनें भी जोर-जोर से गाकर नमक अदायगी करते हैं। उनके अगल-बगल वाले दर्शक भी पड़ोसी धर्म निभाने या अपने से अधिक समझदार उनको मानकर कुछ तालियाँ न्यौछावर कर देते हैं। फिर यह कौआ हकनी ध्वनि का स्वरूप ग्रहण कर लेता है।
कवि सम्मेलन का स्वरूप इतनी तीव्रगति से बदला कि जितना तेज गिरगिट भी नहीं बदल सकता। आज आलम यह है कि कवि सम्मेलन में जाकर भी पूछना पड़ता है कि यहाँ क्या हो रहा है! इसके नाम पर आर्केस्ट्रा जैसा ही कुछ हो रहा है। कवि किसी जोकर की तरह उपस्थित होते हैं और कवयित्री रति की सगी बहन बनकर। फिर एक नीले स्यार की तरह मंच संचालक होता है प्रायोजित द्विअर्थी संवादों और अपनी स्तरहीन हरकतों द्वारा अधनंगी कवयित्री का शेष वसन उतारता है। कवयित्री भी सूर्पणखा सरिस प्रपोज करती है। दर्शक मजे ले लेकर खूब तालियाँ बजाते हैं। शायद दर्शकों की चाहत ही यही हो। इसमें एक खास बात और होती है। अगर दो-चार लोग कवि सम्मेलन की पुरानी गरिमा के वशीभूत यहाँ पधारे होते हैं तो उनकी दशा सबसे दयनीय होती है। वे समझ नहीं पाते कि उनकी बौद्धिक क्षमता जवाब दे चुकी है या मंच ही कुमंच है!
मैंने स्वयं शामिल होकर, कैलाश गौतम, शैल चुर्वेदी, चन्द्रशेखर मिश्र, श्रीकृष्ण तिवारी नीरज जी जैसे लोगों का मंच देखा है। आज ये होते तो महादेवी वर्मा जी की तरह मंचों से दूरी बना लेते या ऐसा भी हो सकता था कि इन्हें कोई पूछता ही नहीं। वैसे न पूछना ही इनकी और इनकी कविता की मर्यादा के लिए बेहतर होता। सच में इक्कीसवीं सदी ने सब कुछ बदल डाला है। ऊँची दुकानों पर फीके पकवानों का कब्जा हो गया है।
— डॉ. अवधेश कुमार अवध