प्रेम कभी एक पवित्र रिश्ता होता था जिसमें दो दिल एक दूसरे के साथ, एहसास , भावनाओं को न सिर्फ समझते उसे मान सम्मान और भरोसा से संजोते थे। शादी के लिए परिवार की रज़ामंदी के लिए जी जान लगा देते थे उन्हें मनाने में और दोनों परिवार साथ मिल इस रिश्ते का नाम और अपना आशीर्वाद देते।
पर जैसे जैसे समय बदलता गया प्यार, रिश्तों , साथ का प्रारूप भी बदलने लगा उस में इतनी स्वच्छंदता आ गई की युगल अपने फैसले खुद ही लेने लगे आज़ादी का नाम देकर बनाम लिव इन रिलेशनशिप जिसमें न सेक्स की कोई बाध्यता थी न ही किसी लाज, लोक शर्म की बस एक कमरा ले लिया और साथ जीने लगे बिना किसी नाम, रिश्ते, बंधन के अपने अपने परिवार से दूर। यहां हम ने ये भी देखा, सुना, पढ़ा की आज की पीढ़ी को एक से ज़्यादा संबध स्थापित करने से भी कोई परहेज़ नहीं रहता। कभी किसी के साथ डेटिंग, कभी किसी के साथ अफेयर , किसी के साथ लिव इन रिलेशनशिप में…. मानो रिश्ता न हुआ कोई ड्रेस या परिधान हो गया जब मन भर गया, ऊब गए तो छोड़ दिया और नया ले लिया।
शायद यही वजह है प्यार, रिश्ते, शादी, बंधन जैसे शब्द अपने मायने खोने लगे हैं । इस से न सिर्फ मानसिक तनाव अपितु अपराध भी बड़े हैं फिर चाहे वो शोषण, मार पीट, आत्महत्या या मर्डर हो। क्योंकि ये आपका निजी रिश्ता, निजी फैसला होता है न परिवार की सहमति, न उनकी सहभागिता और न ही कोई एकदूसरे से कमिटमेंट।
आखिर ऐसे रिश्ते, ऐसे संबंध, ऐसी स्वच्छंदता, ऐसी उन्मुक्तता का लाभ ही क्या जिसकी कोई मंजिल ही न हो या फिर मौत जो बेहद ही दर्दनाक और खौफनाक होती है।
ऐसा नहीं तनाव , परेशानीयां, अनिश्चितता परिवार द्वारा तय किये गए या आपसी मदयहस्सतता से बने रिश्तों में नहीं होती पर तब परिवार और काननू आपके साथ रहता है मामलों को सुलझाने और मदद करने को। साथ ही अपनी कोशिश और एक ज़िम्मेदारी भी होती है परिवार से जुड़े रहने और अपने रिश्ते को बनाये रखने की क्योंकि आप सिर्फ पति पत्नी नहीं माता पिता , बहू , दामाद भी होते हैं इसलिए बिगड़ती बातें बन जाती हैं और मसलों का हल भी निकल आता है क्योंकि आप अकेले नहीं होते।
पर ये बात लिव इन रिलेशनशिप में नहीं होती आपको खुद ही जूझना पड़ता है ज़्यादा से ज़्यादा दोस्तों से बात कर सकते हैं पर उसमें उतनी गहराई या परिपक्वता कहाँ जो परिवार जनों में होती है इसलिए अक्सर रिश्ते या टूट कर बिखर जाते हैं या जीवन की सबसे बड़ी भूल बनकर रह जाते हैं।
समय कोई भी हो , सदी कोई भी हो रिश्तों को लेकर इतनी बेफिक्री, इतनी सहजता, इतनी उन्मुक्तता भी सही नहीं की आप ज़रा से बड़े क्या हुए आप खुद को रिश्तों सेक्स की आग में झोंक दो और फिर इन सबसे इतना ऊब जाओ की खुद से ही नफरत होने लगे । जैसे सिगरेट, शराब, लेट नाईट पार्टीस , हैंग आउट से कोई परहेज़ नहीं वैसे सेक्स लाइफ से भी नहीं ।
इस उन्मुक्तता की कभी कोई मंजिल न रही है न रहेगी सिर्फ एक छल है जिसे हम अपनी आज़ादी, हक, खुशी दे खुद को खुद से ही छलते हैं और एक न एक दिन मानसिक तनाव में गिरफ्त हो उपचार में पहुंच जाते हैं और हैंडल न हो तो आत्महत्या या फिर मौत बनाम मर्डर के शिकार। ऐसी ज़िन्दगी जीने का फिर क्या फायदा जिसकी कोई मंजिल ही न हो सिर्फ मौज मस्ती, आकर्षण या स्टेटस सिंबल। हर रिश्ते की एक सीमा, एक मर्यादा, एक कमिटमेंट , एक परिभाषा होती है…. यदि ये न हो तो उसके कोई मायने नहीं, कोई मतलब नहीं, कोई मंजिल नहीं।
कई लोग इसका शिकार हो चुके हैं कई हो रहे हैं पर बेहतर होगा आने वाली पीढ़ी और बच्चे सबक लें और भटके नहीं फिल्मी हस्तियों की ज़िन्दगीयों को देख, हाई सोसाइटी, स्टेटस सिंबल , सोशल मीडिया से बल्कि खुद तय करें सूझ बूझ समझ से क्या सही है क्या गलत क्योंकि ज़िन्दगी सच्चाई है कोई फैंटेसी नहीं । आप बदलोगे तभी समाज , रिश्ते, और परिवार। सच की रोशनी में जीना सीखो न की उन्मुक्तता के अंधेरों में। रिश्तों को पवित्र , निर्मल रहने तो उसे यूँ बेनाम और मैले मत बनाओ।
जब बात देव दासियों की, राज बालाओं की या प्रॉस्टिट्यूट की आती है तो हम नाक, मुँह , भौहें सिकुड़ने लगते हैं तो इन रिश्तों को क्या कहेंगे आप?? ज़रा सोचिए टटोलिये और संभलने का प्रयास करें । वरना पीढ़ियां यूँ ही अपने को ,अपने भविष्य को इस मकड़जाल में उलझाती रहेंगी बिना हिचक।
— मीनाक्षी सुकुमारन