ग़ज़ल
जो होकर भी न हो, उसका होना कैसा
नाम के रिश्ते से शिकवा कैसा, रोना कैसा
किस किस को कितनी गलतियां गिनाता फिरूँ
हर गुनाह अपने सिर ले लिया, जुबां पिरोना कैसा
झूठ इस कद्र न बोल, कि खुद पर भी शर्म आए
कल की आहट अभी दिख रहे, आज बोना कैसा
कहना चाहता था बहुत कुछ, कह न सका
मर्यादा सामने आ गयी, होश का खोना कैसा
सच कहने की न हिम्मत रही, न ही साहस
होंठ सिल लिए, आँसुओं से मन भिंगोना कैसा
जब अहसास एक साथ आए, कुछ होने का
बिखर जाने का और कुछ भी नहीं होने जैसा
समझ लेना, गहराई से अंतः कहीं कुछ टूटा है
आने वाले कल की सोच, अब बिलोना कैसा
नई पीढ़ी, नई सोच, नया जमाना है ‘श्याम’
मेरे दिल में बसता है, एक शख्स पुराना जैसा
चाहता कुछ और था, कर कुछ और रहा हूँ
जर्रा जर्रा ढह गया,अब खुशी को ढोना जैसा
न कोई रोकने वाला होगा, न टोकने वाला होगा
एक दिन जहां से चला जाऊंगा, तब रोना कैसा