गढ़ी छोर : लोक संस्कृति का प्रतिबिंब
हिंदी के वरिष्ठ कथाकार जयराम सिंह गौर आम जनजीवन से रूप, रस, गंध और प्रेरणा लेकर अपनी कथाकृतियों को आकार देते हैं I इसलिए इनकी रचनाएँ पाठकों के मन पर गहरा प्रभाव डालती हैं I इनकी औपन्यासिक कृति ‘गढ़ी छोर’ कानपूर अंचल की लोक संस्कृति का जीवंत चित्र प्रस्तुत करती है I इसमें उस अंचल के लोकजीवन का प्रभावशाली चित्रण किया गया है I काल-प्रवाह में भारत की परम्पराएं, विरासत, उत्सव, पर्व-त्योहार आदि नष्ट होते जा रहे हैं I इस उपन्यास के द्वारा उपन्यासकार ने लोकजीवन से जुड़ी विरासत को विलुप्त होने से बचाने का सार्थक प्रयास किया है I कानपुर अंचल की ग्राम्य संस्कृति की झांकी प्रस्तुत करना और समृद्ध लोक परम्पराओं को संरक्षित करना उपन्यासकार का प्रमुख उद्देश्य है I उपन्यास में इस जनपद के अंधविश्वासों, परम्पराओं, कुरीतियों के साथ-साथ वेश-भूषा, खान-पान, रहन-सहन, मेले-तमाशे, पर्व-त्योहारों इत्यादि का जीवंत चित्रण किया गया है I जय सिंह और उनके पोते शिशिर के बीच संवाद के माध्यम से कथा आगे बढ़ती है I शिशिर को स्थानीय परम्पराओं से अवगत कराने के लिए जय सिंह कथा सुनाते हैं I इन कथाओं में पौराणिक कथाएँ, पूर्वजों से जुड़ी कथाएँ और लोककथाएँ शामिल हैं I बीच-बीच में अनेक अवांतर कथाएँ चलती रहती हैं जिनके माध्यम से उस अंचल की सभी खूबियाँ और खामियाँ उजागर होती हैं I उपन्यासकार ने अनगढ़ और अपढ़ पात्रों की सृष्टि कर उनकी जिजीविषा, आशा-आकांक्षा, अनुराग-विराग, हर्ष-विषाद आदि को वाणी दी है जिससे उस अंचल की विशिष्टाएँ उभरकर सामने आई हैं I कथोपकथन के द्वारा पूरे उपन्यास का तानाबाना बुना गया है I इस उपन्यास में संवादों का कुशलता के साथ प्रयोग किया गया है I कथोपकथन मनुष्य की अंतरात्मा में झांकने का अवसर प्रदान करता है I कथोपकथन के माध्यम से उपन्यास के प्रमुख पात्रों की विचार-सरणियों को अभिव्यक्त किया गया है I कथोपकथन के द्वारा उपन्यास के विभिन्न पात्रों के मनोभावों, मनोविकारों, छटपटाहट, आत्मसंघर्ष को वाणी दी गई है I ‘गढ़ी छोर’ उपन्यास में दादा और पोते के बीच की बातचीत के माध्यम से दो पीढ़ियों के बीच विचारों की टकराहट को भी दिखाया गया है I ऐसा लगता है कि उपन्यासकार स्वयं अपने जीवन की कथा सुनाकर भावी पीढ़ियों को अपनी विरासत से अवगत करा रहे हैं I जो बात कथाकार सीधे नहीं कह सकता है वह उपन्यास के पात्रों के माध्यम से कहलवा देना इस कथात्मक कृति का वैशिष्ट्य है I यही शैली इस उपन्यास को विशिष्ट बनाती है I दादा और पोता अपने गाँव घूमने जाते हैं, लेकिन गाँव में आए बदलाव को देखकर जयसिंह दुखी और शिशिर हतप्रभ हैं I शहरों की सभी बुराइयाँ, छल-प्रपंच, भ्रष्टाचार और बेईमानी अब गाँवों के स्थायी अंग बन गए हैं I इस रूप को देखकर शिशिर हताश हो जाता है और पूछता है-‘बाबा, इसी गाँव के लिए आप बार-बार आते हैं ?’
‘मेरा गाँव इस प्रगति के जंगल में खो गया है, मैं बार-बार उसी को खोजने गाँव आता हूँ I’
‘कभी मिला ?’ एक तरह से शिशिर ने व्यंग्य किया I
‘हाँ, कभी-कभी मिल जाता है I जैसे आज ही उस चने के खेत में मिला जिस आदमी की तुम तारीफ़ कर रहे थे I’ जय सिंह का अभिमत है कि बदलाव के बावजूद गाँवों में अभी बहुत कुछ शेष है जिसे संरक्षित करने व सहेजने की आवश्यकता है I
मिथक की दृष्टि से भारत अत्यंत समृद्ध है, लेकिन दुर्भाग्यवश इन मिथकों को संकलित करने के लिए गंभीर प्रयास नहीं किया गया है I देश की वाचिक परंपरा में असंख्य मिथक विद्यमान हैं जो इतिहास के गुप्त रहस्य से पर्दा हटा सकते हैं I इस उपन्यास में मिथकों का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया गया है I मिथकों के अतिरिक्त लोकदेवी-देवताओं और पूर्वजों से जुड़े आख्यानों का भी प्रयोग किया गया है I डड़हर खेल, धोबिया नाच, कहारों का डहकी नाच इत्यादि लोककलाएँ लुप्त हो चुकी हैं जिसके प्रति जय सिंह चिंता व्यक्त करते हैं I इस चिंता के साथ इन कलाओं के बारे में जानकारी भी देते चलते हैं I विभिन्न त्योहारों से इन लोककलाओं का जुड़ाव था I जय सिंह कहते हैं-‘आल्हा भुजरियों (रक्षाबंधन) से, डड़हर दिवाली से, टेसू-झुंझिया शरत पूर्णिमा से, फाग होली से जुड़े हुए थे I’ उपन्यासकार ने बदलते अथवा विकृत होते गाँव की चिंताजनक तस्वीर प्रस्तुत की है I इस उपन्यास में पर्यावरण, प्रकृति, नैतिक मूल्य, सामजिक शुचिता इत्यादि के प्रति सम्मान प्रकट किया गया है तथा नैतिक मूल्यों में गिरावट पर चिंता व्यक्त की गई है I जयसिंह कहते हैं-‘यह धरती हमें क्या नहीं देती है, अन्न, औषधियां, हमारे घरों, पहाड़ों, समुद्रों को धारण करती है I इसलिए हमारे मन में धरती के लिए श्रद्धा होनी ही चाहिए I’ इस उपन्यास के बहाने उपन्यासकार के मन में अंचल की लोककथाओं, लोकाचारों, लोक कलाओं को संकलित-संरक्षित करने का संकल्प दिखाई देता है I उपन्यास में अनेक सामयिक घटनाओं पर बेबाक टिप्पणी की गई है जो उपन्यासकार के सामाजिक जुड़ाव का साक्षी है I किसानों की व्यथा कथा पर जय सिंह के मुख से उपन्यासकार की टिप्पणी द्रष्टव्य है-‘किसान हमेशा दैवी आपदाओं से दो-चार होता रहता है I कभी अतिवृष्टि तो कभी अनावृष्टि, कभी पाला तो कभी ओला I किसान हमेशा आसमान ताका करता है I’ ‘गढ़ी छोर’ में पुलिस, दलाल और अपराधियों के गठजोड़ को दिखाया है I यह खुला सच है कि पुलिस के संरक्षण में सभी प्रकार के अपराध फलते-फूलते हैं I पुलिस के संरक्षण के बिना मादक पदार्थों की खरीद-बिक्री और अवैध कारोबार संभव ही नहीं है I दारोगा और ठाकुर साहब के बीच रिश्वत राशि के बँटवारे के संदर्भ में निम्नलिखित संवाद द्रष्टव्य है-
दारोगा ने कहा ‘ठाकुर साहब उम्मीद से ज्यादा फायदा हो गया I मुझे आपसे कुछ बात करनी है I’
‘कहें I’
‘यहाँ नहीं जरा भीतर चलें I’
दारोगा के इस कथन से उसकी धूर्तता का पता चलता है I उपन्यासकार को जब भी अवसर मिला है उसने प्रकृति का मनोरम चित्र खींचा है I इस उपन्यास में अनेक स्थलों पर प्रकृति से पाठकों का साक्षात्कार कराया गया है I उपन्यास के आरंभ में ही प्रकृति का ऐसा मनोहारी चित्र उपस्थित किया गया है जिसमें वसंत ऋतु का जीवंत चित्र साकार हो उठा है-‘वसंत अपनी जवानी पर है, खेत पीली और बैगनी चादरों से ढक गए हैं, जौ और गेहूँ में बालियाँ निकल आई हैं I बागों, अमराइयों और महुआरियों से सुगंध हवा में तैरकर गाँव को भिगोने लगी है I वसंत की हवा जब चलती है तो शरीर में सिहरन पैदा करती है I अमराइयाँ कोयल के गीतों से गूंजने लगी हैं I पाकड़ और पीपल फलों से लद गए हैं उन पर हारिल और कबूतर आने लगे हैं, पिढ़कुल और बुलबुल अपने घोंसले बनाने लगे हैं I’
‘गढ़ी छोर’ में धर्मान्तरण की समस्या को भी उठाया गया है I उसकी बिरादरीवाले ने उसे बहिष्कृत कर दिया I अंततः वह दिल्ली चला गया I चर्च के फादर ने उसे ईसाई धर्म में परिवर्तित कर दिया I वह रामऔतार से रामऔतार मैसी बन गया I वह बाहर से तो ईसाई बन गया, लेकिन मन-मस्तिष्क से वह पारंपरिक हिंदू बना रहा I भौतिक दृष्टि से तो रामऔतार सुखी-संपन्न हो गया, लेकिन उसके मन में एक बेचैनी रहती थी I जय सिंह के सामने रामऔतार ने अपना दर्द बयान किया-‘बबुआ, रामऔतार और रामऔतार मैसी के बीच कई जन्मों का फासला तय करना पड़ा है I पीड़ा के महासागर को तैरकर रामऔतार मैसी तक जाना पड़ा है I जानते हो गाँव में जूता गाँठता था, भरपेट हम मियां-बीबी को खाना नहीं मिलता था, फिर भी खुश थे, अपनी एक पहचान थी, अपना परिवार था, रिश्तेदार थे I अब कौन है बस रामऔतार मैसी I’ धर्म परिवर्तन के उपरांत भी रामऔतार मन से हिंदू बना रहा और आजीवन धर्म परिवर्तन के अपराध बोध से उबर नहीं पाया I बेहतर जीवन की तलाश और लोभ में लोग अपना धर्म तो परिवर्तित कर लेते हैं, लेकिन मन के किसी कोने में अपने मूल धर्म के प्रति निष्ठा यथावत बनी रहती है I गाँव के लोग छोटे-छोटे झगड़ों और मुकदमों में पड़कर अपना सुख-चैन गँवा देते हैं I यह उत्तर भारत के सभी गाँवों की गंभीर समस्या है I लोग एक बित्ता जमीन के लिए अदालतों में लाखों रुपए उड़ा देते हैं, लेकिन झूठी शान के कारण समझौता नहीं करते हैं I उपन्यासकार ने निम्नलिखित संवाद में गाँवों की इस समस्या को रेखांकित किया है-
‘देखो मैं तुम दोनों लोगों से पूछ रहा हूँ कि यह मुक़दमा कब से चल रहा है ?’
‘बहुत दिन हुइ गए I’
‘कितना रुपया खर्च हुआ होगा ?’
‘लिखो तो नाई पर हजारन खर्च हुइ गए हुइए I’
‘जगह कितनी है ?’
‘पाँच बिस्वा I’
‘बस पाँच बिस्वा I’
‘हाँ भइया I’
‘इतने रुपयों में तो तुम लोग एक-एक बीघा जमीन खरीद लेते I’
‘गढ़ी छोर’ कानपूर जनपद का प्रतिबिंब है I इस उपन्यास में ग्राम्य जीवन अपनी सम्पूर्णता में उजागर हुआ है I इसमें शोषण, अन्याय, उत्पीडन के साथ–साथ व्यापक फलक पर मेला–ठेला, रीति-रिवाज, खेती-किसानी आदि का भी चित्रण किया गया है I उपन्यासकार ने सामाजिक विद्रूपताओं और विडम्बनाओं पर गहरा प्रहार किया है I उपन्यास में बिखरते जीवन मूल्यों, टूटते परिवार, दरकते रिश्तों, शून्य होती संवेदनाओं को रेखांकित किया गया है I उपन्यास का फलक अत्यंत विस्तृत है I उपन्यास में उत्तर प्रदेश की मिट्टी की सोंधी महक और ग्राम्य जीवन की झलक मिलती है I बीच–बीच में आंचलिक भाषा और शब्दावली का प्रयोग किया गया है जिसके कारण स्थानीय रंग प्रभावशाली तरीके से उभरकर सामने आया है I कथ्य और शिल्प की दृष्टि से यह एक उत्कृष्ट औपन्यासिक कृति है I उपन्यास की भाषा सहज, बोधगम्य और प्रवाहपूर्ण है I इस उपन्यास में ग्रामीण बोलियों, लोकोक्तियों, मुहावरों, उच्चारण भंगिमाओं द्वारा आंचलिक संस्कृति सजीव हो उठी है I
पुस्तक-गढ़ी छोर
लेखक-जयराम सिंह गौर
प्रकाशक-के.एल.पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद
वर्ष-2021
पृष्ठ-150
मूल्य-375/-