बीती उम्र कुछ इस तरह कि खुद से हम न मिल सके
जिंदगी का ये सफ़र क्यों इस कदर अंजान है
प्यासा पथिक और पास में बहता समुन्द्र देखकर
जिंदगी क्या है मदन , कुछ कुछ हुयी पहचान है
कल तलक लगता था हमको शहर ये जाना हुआ
इक शख्श अब दीखता नहीं तो शहर ये बीरान है
इक दर्द का एहसास हमको हर समय मिलता रहा
ये बक्त की साजिश है या फिर बक्त का एहसान है
गर कहोगें दिन को दिन तो लोग जानेगें गुनाह
अब आज के इस दौर में दिखते नहीं इन्सान है
गैर बनकर पेश आते, बक्त पर अपने ही लोग
अपनो की पहचान करना अब नहीं आसान है
— मदन मोहन सक्सेना