कहानी – इच्छाधारी नाग और भोला
नाम था उसका भोला।स्वभाव का भी भोला। दीवाली से दो दिन पहले एक दिन वह अपने खेत की मेंड़ की सफाई कर रहा था। तभी उसे पास ही सर्प की एक बाँबी दिखाई पड़ी। वह चोंका और अपनी खुरपी बहुत सावधानी पूर्वक चलाते हुए घास छीलने लगा।बाँबी से लगभग एक मीटर दूर उसकी ओर पीठ किये हुए वह अपने कार्य में तल्लीन था।अचानक उसने पीठ के पीछे कुछ सरसराहट अनुभव की तो उसने पीछे दृष्टि घुमाकर देखने का प्रयास किया ,किंतु जब उसे कुछ भी दिखाई नहीं दिया तो उसने अपने मन का भ्रम समझकर नजरंदाज कर अपने कार्य में व्यस्त हो गया। पर उसका मन नहीं माना तो खड़ा होकर देखने का प्रयास किया कि उसका अनुमान सही सिद्ध हुआ। एक तेजस्वी गेरुआ वस्त्रधारी संत सामने विराजमान थे।
“महाराज आप!” भोला ने पूछा। “अचानक कहाँ से प्रकट हो गए। अभी तो यहाँ कोई भी नहीं था।”
“हाँ, भोले भाई। यही समझ लो कि प्रकट ही हुआ हूँ।”संत महाराज ने उत्तर दिया।”अभी जब तुमने पीछे घूमकर देखा था ,तब भी मैं यहीं पर था। पर तुम देख नहीं सके।”
संत महाराज से अपना नाम लेकर संबोधित करने पर भोला चोंका और पूछ ही लिया : “महाराज !आप तो मेरा नाम भी जानते हैं। महाराज अपना परिचय दें।”
“हाँ, भोला भाई ! मैं तुम्हें लंबे समय से जानता पहचानता हूँ;परंतु तुम मुझे नहीं जानते। खैर !छोड़ो भी। क्या करोगे ज्यादा जानकर। मैं वह नहीं हूँ ,जो तुम देख रहे हो।इससे इतर कुछ औऱ ही हूँ। यदि मैंने अपना वास्तविक परिचय दिया तो हो सकता है तुम डर न जाओ। इसलिए मुझे इस रूप में आना पड़ा है।” संत महाराज ने बताया।
इतना सुनते ही भोला के मन में स्वाभाविक रूप से भय व्याप्त हो गया,जो उसके चेहरे के बदलते हुए रंग से ही स्पष्ट हो रहा था।संत जी ने उसके भय को भाँप कर उसे ढाढ़स बँधाया औऱ कहने लगे।
“देखो भोला भाई ! डरो मत। मैं तुम्हरा ही पूर्वज औऱ तुम्हारे पिता का पिता हूँ औऱ कर्मफल वश इस समय नाग योनि में जीवन- यापन करते हुए इसी बाँबी में निवास कर रहा हूँ। तुम भयभीत न हो जाओ, इसलिए इस रूप में तुम्हारे समक्ष प्रकट हुआ हूँ।
तुम मुझसे बिलकुल मत डरो। तुम्हें कोई भी हानि नहीं पहुँचाऊँगा। तुम मेरे प्रिय पौत्र जो हो।कुछ न कुछ भला ही करूँगा वास्तव में मैं एक इच्छाधारी नाग हूँ।” संत रूप धारी नाग ने अपना रहस्य प्रकट किया।
“ठीक है महाराज।” भोला बोला। “अब मुझे आदेश करें कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?”
संत रूप धारी नाग बोला :”अब तुम भला मेरी क्या सेवा करोगे। तुम मिल गए। मुझे बहुत अधिक शांति मिली। जीवन में इतना ध्यान रखना कि कभी भी स्वप्न में भी अपने से बड़ों, माता ,पिता और गुरुजनों का अपमान मत करना। सोचना भी मत। यह बहुत बड़ा पाप है। ऐसी आत्माओं को नरक में स्थान नहीं मिलता औऱ जन्म जन्मांतर तक रौरव नरक में पड़े जलते, सड़ते ,विकलते रहते हैं। इस जघन्य पाप की कोई क्षमा नहीं है।”
“जो आज्ञा महाराज।” भोला बोला।
“नहीं, अब सब जान ही गए हो तो अब मुझे महाराज मत कहो। बाबा कहो। मैं तुम्हारा बाबा हूँ। जब मैंने अपना नश्वर शरीर छोड़ा था ,तब तुम्हारा जन्म भी नहीं हुआ था। आज तुम्हें देखकर मेरी आँखें तृप्त हुई हैं। हमारी आज की मुलाकात की कोई भी चर्चा मत करना। तुम्हें कुछ औऱ पूछना हो तो पूछ लो।” संत रूप संत महाराज ने कहा।
भोला कहने लगा : “बाबा एक जिज्ञासा है कि इस संसार में सर्प अधिक जहरीला है या आदमी?”
बाबा बोले :”इसका तो सीधा सा उत्तर है कि सर्प तो केवल अपने जहर से और दंशन के भय से जान ले लेता है किंतु इस पृथ्वी का सबसे घातक प्राणी मानव ही है। जो अपने अनेक विध अस्त्र- शस्त्रों से प्राण हरण करता है।उसकी जबान में अमृत है तो विष भी है।उसकी दृष्टि में भी विष है औऱ उसका मन तो विष का सागर है।दो विरोधाभासी स्थितियों में वह कभी विष है तो कभी अमृत। इसलिए इस आदमी से सदैव सावधान रहना।वह कब किस रूप में विष वमन करने लगे; कुछ कहा नहीं जा सकता। इस कलयुग में तो अपना बेटा भी अपने पिता के साथ अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकता है।आदमी सर्प देखकर इसलिए डरता है कि वह उसे डंस न ले ! और सर्प इंसान से इसलिए भयभीत है कि वह उसकी हत्या न कर दे! सर्प को जब तक छेड़ा न जाए ,वह हानि नहीं पहुँचाता। किन्तु मनुष्य बिना कारण भी किसी की जान लेने पर उतारू हो जाता है।
अच्छा तो अब ठीक है। और ध्यान से सुनो ।बाँबी से इक्यावन कदम दूरी पर तुम्हारे खेत की मेढ़ में पूर्व दिशा में इक्कीस फीट नीचे सोना गढ़ा हुआ है। कभी भी बड़ी आवश्यकता पड़े तो निकाल लेना। कहीं भी चर्चा मत करना। पता है न कि आदमी ही आदमी के लिए महाविष है।”
“जी बाबा।”भोला बोला और देखते ही देखते बाबा अंतर्धान हो गए।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’