कैसा नया जमाना है
समझ न आती चाल समय की,
कैसा नया जमाना है !
शंकित हर आदमी परस्पर,
संदेहों के घेरे हैं,
थर -थर भय से काँप रहे वे,
ज्यों बेरी सँग केरे हैं,
जंगल ही जंगल है,
कहाँ लोकमंगल है?
रसना पर आदर्श थिरकते,
राम राज्य ले आना है।
भूखी मरती गाय सड़क पर,
खाली सब गौशाला हैं,
भूसा चारा बेच खा रहे,
ओढ़े पीत दुशाला हैं,
फ़ोटो में मुस्काते,
सत गोभक्त कहाते,
कब्जा करने को जमीन पर,
शाला बनी बहाना है।
गाँव छोड़कर भाग रहे हैं,
महानगर के कोने में,
थाली छोड़ खड़े हो खाते,
नर नारी अब दोने में,
लड़ामनी में भैंसे,
खाते हैं वे ऐसे,
नई सभ्यता फटी जींस में,
नंगा बदन दिखाना है।
मात-पिता को आँख दिखाती,
संतति नए जमाने की,
माँग रही है रक्त पिता का,
ताकत उनके ताने की,
सेवा अपनी चाहें,
बढ़ती जाती डाहें,
‘शुभम्’ अपेक्षा शेष नहीं है,
छूना चरण बहाना है।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’