आज एक लाश जल रही है तो इतना शोक क्यों ?
आज लाश जलानें पर इतना शोक क्यों? आत्मा तो बहुत पहले ही मर चुकी थी आज तो शरीर मरा है! इसकी दुर्दशा पर इतना आफसोस क्यों? जी हां वर्तमान समय में स्वयंवर का दौर बहुत तेजी से अपना पांव पसारता नजर आ रहा है, त्रेतायुग, और द्वापरयुग से कलियुग का स्वयंवर कुछ भिन्न है, त्रेता और द्वापर में जो स्वयंवर होते थे वह कन्या के परिवारीजनों के द्वारा निर्धारित किये जाते थे उसका एक लक्ष्य होता दूर देश के लोग अपने कार्य कौशल की निपुणता का प्रदर्शन करते थे जो लक्ष्य को भेद देता था कन्या उसी के गले में वरमाला डाल देती थी,उसके बाद पति पत्नी बन कर पूरा जीवन व्यतीत करते थे, किन्तु कलयुग के स्वयंवरों का कोई निर्धारित लक्ष्य नही है पूरा जीवन एक दूसरे के बन कर रह पायेंगे या नही यह भी निष्चित नही है, आज के स्वयंवर में परिवारिकजनों की सहमति की भी आवश्यकता नही रहती है, बस चंद मुलाकातों में लोग परिवार की मान मर्यादा की आहूति देकर एक दुसरे के होते जा रहें है, उनके अन्दर इस बात का भी अफसोस नही दिखता कि जिन्होने पाल पोष कर हमको इतना बड़ा किया कि उचित अनुचित का फैसला ले सकूं, जिनके सानिध्य में शारीरिक और मानसिक विकास हुआ उन परिवार वालों की मानसिकता और विचारधारा आज अदना लगने लगी है, जागरूकता की उस सीमा तक आज हम पहुंच चुके हैं कि जहां पर फटी बॉहें, कटे घुटने को ही सर्वश्रेष्ठ माना जा रहा है, कंधे से तो दामन का दमन कब का हो चुका है यदि किसे के कंधे पर दामन मिल भी जाता है तो उसे अशिक्षित और अज्ञानी, की संज्ञा से नवाजा जाता है।
आज एक लाश जल रही है तो इतना शोक क्यों मनाया जा रहा ? आत्म तो उसी दिन मर चुकी थी जिस दिन मां, बाप, भाई, बहन, समाज, बिरादरी की परवाह किये बिना स्वयंवर की बॉह थाम ली थी परिवार के सारे नियम और संस्कार को स्वाहा कर दिया था एक परिवार वालों के प्रति दिल दिमाग में क्रान्तिकारी भाव उत्पन्न हो चुके थे, अपने लक्ष्य पाने के लिये परिवार के सभी लोगों को परास्त करना ही सही नजर आने लगा था और अपनी जवानी का जोश दिखाना था। कुछ लोग अभी इस प्रकार के भी जिन्दा है जो जोश में भी कुछ होश अपने दिलो दिमाग में बाकी रखते हैं, कि मेरे किसी भी फैसले से परिवार के सदस्यों को समाज में किसी आपत्ति का सामना न करना पड़े, ऐसे लोग छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा फैसला लेने से पहले प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से घर के बड़े बुजुर्गों से एक बार मष्वरा अवश्य करते हैं और काफी सोंच विचार कर आगे की राह चलते हैं, परन्तु आज के दौर में ऐसा बहुत ही कम देखने को मिल रहा है, आज के दौर का सिलसिला किसी होटल की गर्म चाय से शुरू होता है और गर्म राख पर आकर रूकता है।
आधुनिकता ने तो प्यार मोहब्बत के गगन में चार चांद लगा दिए हैं आज हमको उन लोगों से प्यार होता जा रहा है जिनको हम ठीक से जानते भी नही हैं, हम प्यार में इतना अंधे हो जाते हैं कि हम यह भी नही जान पाते हैं कि हम जिससे प्यार कर रहें हैं कहीं वह इंसान की शक्ल में शैतान, हैवान तो नही है, प्यार अंधा नही होता है प्यार तो बहुत गहराई से देखता है परन्तु जब किसी के आंख में कोई तिनका पड़ जाता है तो खुद की आंख उस तिनके को नही देख सकती है और आज की युवा आंख को दिखाने के बजाय आंख को मलमल कर आंख लाल कर लेती है किन्तु आंख में पड़े तिनके को घर के किसी भी सदस्य को दिखा नही सकती है ताकि समय से उसका उपचार हो सके, यही कारण है कि आज के समाज को शर्मनाक घटनाओं का सामना करना पड़ रहा है, आज के माता पिता अपनी औलादों को ऊंचा करने के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर कर रहे हैं और वही ऊंचा उठ कर कभी कभी अपने माता-पिता और समाज को इतना नींचा दिखा देते हैं कि कहीं पर कुछ भी बताने में शर्म लगने लगती है। इस लिये प्रेम सभी से करो ओर लगाव थोड़ा सोंच समझ कर नही तो शिक्षित और अशिक्षित में कोई फर्क नही रह जायेगा।
राजकुमार तिवारी ‘‘राज’’
बाराबंकी, उ0प्र0
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