गज़ल
हसरत-ए-दिल-ए-बेकरार कहां तक जाती,
दश्त-ए-तनहाई के उस पार कहां तक जाती,
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मैं ज़मीं पर था तुम कोहसार-ए-गुरूरां पर थे,
गरीब की ख्वाहिश-ए-दीदार कहां तक जाती,
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मैं तो आया था तुमने हाथ बढ़ाया ही नहीं,
इकतरफा दोस्ती सरकार कहां तक जाती,
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ज़रूरत के बोझ तले दब के दम तोड़ दिया,
थी अपनी ज़िंदगी लाचार कहां तक जाती,
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हश्र में आ गए आखिर वो सामने मेरे,
ये जो दौलत की थी दीवार कहां तक जाती,
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।