कविता

परवाह

परवाह उनकी मैं क्यूँ करूँ ?
जिन्हें हर पल मैं खटकता हूँ
अपनी मर्ज़ी का मैं हूँ मालिक
अपनी ही धुन में,मैं चलता हूँ
कच्चे रिश्तों की इस डोर को
जोड़ने की कोशिश करता हूँ
गल चुके हैं अब धागे इसके
पर विश्वास मैं मन में रखता हूँ
कैसे मान लूँ यूँ हार मैं अपनी
उम्मीद को बांधे हुए रखता हूँ
दिल में है अंधेरा पसरा हुआ
आशा की लौ जला,रखता हूँ
— आशीष शर्मा ‘अमृत ‘

आशीष शर्मा 'अमृत'

जयपुर, राजस्थान