मजबूर मत करना किसी को इस दौर में
चाँदी के सिक्कों की खनक चलती है
वक़्त कहाँ है अब किसी के पास
यादों की सौगात क्यों मचलती है
उसूलों को तोड़कर चल दिये हैं
जिस ओर मयस्सर सूकून कहाँ
अकेले हैं सब इस जहाँ में अब
खिलखिलाहट कहॉं खिलती है
बेगाने लोगों की भीड़ में क्यों
याद करता है आज अपनों को
कहकहे लगाते अजनबियों के साथ
बोतलें आजकल सरेआम खुलती हैं
खामोश जुबान पर ताला लगा कर
चाभी खिलौना बन गयी
मसीहा बनने की आड़ में
मजबूरियाँ ओस में क्यों पिघलती हैं
— वर्षा वार्ष्णेय