ग़ज़ल “आदमी मजबूर है”
राह है काँटों भरी, मंजिल बहुत ही दूर है
देख कुदरत का करिश्मा, आदमी मजबूर है
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है हवाओं में जहर, आतंक का बरपा कहर
आजकल का आदमी, कितना नशे में चूर है
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आशिकी में के खेल में, ऐसी दगाबाजी मिली
प्यार की दीवानगी में, लुट गया सब नूर है
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नेह के बिन तोड़ता दम, भाईचारे का दिया
देश-दुनिया में भरी, अब नफरतें भरपूर है
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इंसानियत की हो हिफाजत, अब यहाँ कैसे भला
वादियों में मौत का, अब बन गया दस्तूर है
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अमन के नारे चमन से, हो गये हैं अलविदा
शायरी के नाम पर, शायर हुए मगरूर है
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बिक रही है आज अस्मत, ‘रूप’ के बाजार में,
सभ्यता मेरे वतन की, आज चकनाचूर है
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)