भाषा संयम खोती राजनीति
इस सत्य को कोई भी नकार नहीं सकता है कि जिस समाज की भाषा में सभ्यता होती है।उस समाज में भव्यता और दिव्यता होती है।किसी चुनाव से पहले धुवाँधार प्रचार के ज़रिये मतदाता तक पहुँचने के चक्कर में आज राजनीति अपना भाषा संयम खोती चली था रही है। एक दूसरे के संगठन और नेताओं पर इस तरह आरोप प्रत्यारोप लगाये जाते हैं कि जिसे बाद में देख सुन कर खुद ही शर्मिन्दगी महसूस होती है। सबसे खराब स्थिति तब होती है जब बढ़त हासिल करने के चक्कर में दूसरे के धर्म और महापुरुषों पर अनर्गल टिप्पणियां की जाती हैं। इस्लाम धर्म के पैगम्बर और भारतीय संस्कृति के प्रतीक पुरुषों और संतों पर सस्ती बयानबाजियां इसके चन्द उदाहरण सबके सामने हैं। जिसके चलते अक्सरो बेसतर अप्रिय स्थितियां पैदा हो जातीं हैं। धरना प्रदर्शन, जलसे जुलूस के द्रवारा अपना वर्चस्व दिखाने की कोशिश की जाती है। सत्तर बहत्तर साल के परिपक्व लोकतंत्र के लिए ये एक नामुनासिब चीज़ है। इसको नियन्त्रित करने के लिए चुनाव आयोग द्वारा मुनासिब हिक़मत ए अमली तैयार की जानी चाहिए। विडंबना ये है कि चुनाव आयोग इस सिम्त उचित क़दम नहीं उठाये जा रहे हैं।
— अब्दुल हमीद इदरीसी (हमीद कानपुरी)