कविता

जगत उनके रहे हैं गत सब ही!

जगत उनके रहे हैं गत सब ही,
गति उनकी में बहे हैं यों ही;
ज्ञान ना कहाँ है और क्यों हैं,
भान ना कराएगा क्या वो ही!

बोध आया नहीं है बुद्धि चले,
रोध करना औ रोना सीखा अभी;
हुआ अनुराग कहाँ जननी से,
राग में आया कहाँ उर है अभी!

विराग विरक्ति कहाँ छूयी,
शक्ति अनुरक्ति कहाँ है आई;
भक्ति भुक्ति को कहाँ परश किई,
कला के स्रोत आए ना पलकी!

झलकी उन्मुक्तता की कहँ पाए,
मुक्ति औ मोक्ष को कहाँ चाखे,
सृष्टि को चलाना कहाँ आया,
सेवा करना है अभी ना भाया!

धारणा अभी प्राण अपने की,
कहाँ ब्रह्माण्ड ध्यान आया अभी;
‘मधु’ का माधुर्य और मर्म गही,
बात हम उनकी नहीं समझे सही!

✍🏻 गोपाल बघेल ‘मधु’