“काका की चाय!”
“काका चाय मिलेगी?” धनखड़ ने पूछा.
“बचवा चाय ही तो मिलेगी यहां! घणी अदरक डाल के?”
“काका, आप मुझे पहचान गए क्या?”
“पहचानेंगे कैसे नहीं! इतने प्यार से काका और कौन बोल सकता है बचवा! हमारी आंख बंद होती तो भी मीठी आवाज से पहचान जाते.”
“काका, छः साल पहले तो मेरी मूंछें फूटनी ही शुरु हुई थीं और अब नोकदार हो गई हैं, तो भी—-!”
“बचवा मूंछें नोकदार हुईं तो क्या, आवाज तो नोकदार नहीं हुई न! अब होगी भी नहीं!” काका ने चारपाई पर बैठने का इशारा किया.
“वो कैसे! मैं समझा नहीं!” चाय बनाते-बनाते काका ने पानी का गिलास भी पकड़ा दिया.
“पूत के पैर पालने में ही पहचाने जाते हैं,” चाय को हिलाते हुए काका ने कहा, “ये बाल धूप में सफेद नहीं हुए हैं, बिगड़ना होता तो अब तक बिगड़ ही जाते!”
“काका चाय तो बड़ी स्वादिष्ट बनी है.” धनखड़ कुछ सोचने लग गया.
“क्या सोच रहे हो बचवा!” काका ने पकड़ लिया था!
“काका, आप यहां अकेले रहते हैं, हमारे सरसों के खेत में हमारा बड़ा-सा मकान है, आप चलोगे तो मुझे पिताजी मिल जाएंगे और मकान घर बन जाएगा! काका प्लीज़, ना मत करना!”
तब से काका धनखड़ के साथ रहते हैं, लेकिन अब भी वही चारपाई खेत के किनारे लगा रखी है और सबको चाय पिलाकर तृप्ति पा जाते हैं.
दूर-दूर से लोग “काका की चाय!” पीने आते हैं.