तलाश
कहाँ है आजादी?
दूर-दूर तक नहीं आती
कहीं नज़र,
अभिव्यक्ति के खतरे भी हैं,
पाबन्दियाँ भी,
एक सिरे पर
आजादी की बातें ही बातें
दूसरे पर
सब कुछ उलटा-पुलटा,
जो बोलता है
उसके बेर बिक जाते हैं,
अबोलों का सब कुछ अनबिका रह जाता है,
सच अधमरा पड़ा रहता है,
झूठ हाथों-हाथ बिक जाता है,
जो बोलना जानता है, बोलना चाहता है
उसका मुँह कर दिया जाता है बंद सायास,
आक्षितिज पसरे
लफ्फाजी भरे शब्दों के इस संसार में
सब कुछ चलता है,
चल जाता है
चला दिया जाता है।
कुछ चलते बनते हैं,
कुछ आगे से आगे चला दिए जाते हैं
रुका रहता है तो बस
नैतिक मूल्यों से भरा आदमी
और उसकी बातें
जो सदियों से कर दी जाती रही हैं
अनसुनी।
— डॉ. दीपक आचार्य