क्या ये दुनिया स्त्रियों के लायक है
क्यूँ हंमेशा महिलाओं को दुनिया के लायक बनाने पर ज़ोर दिया जाता है? सवाल ये है कि, क्या दुनिया स्त्रियों के लायक है?
अगर है! तो साहित्य कौनसे विमर्श की बातें कर रहा है? पेपर पत्रिकाओं में रोज़ छप रहे स्त्री दमन के किस्से कौन छपवा रहा है? नारिवाद का जन्म इसी समाज से उद्भव हुआ है और यही समाज नारियों को जीने के तौर तरीके सीखा रहा है!
हर बेटी जन्म से ही दुनियादारी सीख कर आती है। पर, बेटियों का दो पायदान उपर चढ़ना अखरता है दुनिया को, तभी सदियों से कमतर समझा जाता है महिलाओं को।
मर्दों के मुकाबले कमज़ोर होती है महिला ऐसी सोच को समय, समय पर हवा दी जाती है। जब कि हकीकत ये है कि महिलाओं से मजबूत कोई हो ही नहीं सकता! तभी तो ईश्वर ने औरत को माँ बनने की अधिकारी बनाया है।
नौ महीने चार किलो का पिंड़ बाँधकर रहना और नाक में से नारियल निकालने जितनी वेदना सिर्फ़ स्त्री ही सह सकती है। खोखली मानसिकता है दुनिया की कि औरतें कमज़ोर होती है।
जब किसी महिला के पति का देहांत हो जाता है तब महिला बड़ी ख़ुमारी और हिम्मत से बच्चों और परिवार को पालने का दम रखती है। पर पत्नी की मृत्यु हो जाने पर पुरुष टूट जाता है, नहीं संभाल पाता परिवार और काम की दोहरी जिम्मेदारी; जितनी जल्दी हो सके दूसरा ब्याह रचाकर घर संभालने वाली ले आता है। तो कहो कौन सहनशील हुआ? बदलते वक्त के साथ सबकुछ बदला एक महिलाओं को लेकर समाज की विचारधारा नहीं बदली।
आज की लड़की की काबिलियत बयाँ करें तो उनकी सोच की सीमा सीमित नहीं रही, झंडे गाड़ने की आदी बन गई है। किस्मत के भरोसे नहीं बैठती मेहनत और लगन से लकीरों में खुशियाँ भरना खुद सीख गई है।
आकांक्षाओं का ओज है इनकी आँखों की सुराही में, नशा है आज़ाद गगन को अपने नाम लिखवाने का। खुद की पहचान को जन्म देने का जुनून ले चला है उस क्षितिज तक, जहाँ से दिखती है अपनी विराट शख़्सियत उन लड़कियों को। सत्तात्मक आवाज़ को रोंद दिया है रोबिले अंदाज़ की चकाचौंध से और नवचेतना से ललकार दिया है मर्दाना अहं के बवंडरों को,
लघुता को देहरी पर बाँधकर कॉर्पोरेट जगत की सरताज बनी बैठी है। थी कभी विषम परिस्थितियाँ और मंज़िल की परछाई भी धूमिल थी पर, परवाज़ लिए हौसलों की, पगडंडी से कूच करती पैवेलियन तक पहुँच गई है। ना! नहीं रही अबला, बेचारी, बेबस खुद को तराशते झिलमिलाता गौहर बन गई है। आज की नारी कहाँ से कहाँ पहुँच गई है। इसीलिए अब समय आ गया है बेटियों को कमज़ोर कहना, समझना और लिखना बंद कर देंगे तभी इनकी ताकत को उजागर कर पाएँगे। शुरुआत घर से करें, बेटा-बेटी का भेदभाव ख़त्म करके बेटियों का पालन भी बेटों के बराबर करें। घर से असमानता मिटेगी तभी समाज में दिखेगी; वरन सदियों से चली आ रही मानसिकता के चलते लड़कियों के प्रति समाज कभी न्याय नहीं कर पाएगा।
— भावना ठाकर ‘भावु’