बगिया मेरे गांव की
बाग-बगीचे वाले दिन,
बचपन के मतवाले दिन।
कितने भोले भाले दिन,
लगते बहुत निराले दिन।
बगिया की याद आती है,
हमको बहुत सताती है।
तनिक भी नहीं डरते थे,
चील्होरि खेला करते थे।
तरुवर की तरुड़ाई में,
पत्तों की परछाईं में ।
खेल अनेकों होते थे,
गिरकर भी ना रोते थे।
सत्तोड़ि और सुटुर्र हमारे,
लगते हमको कितने प्यारे।
सब खेलों में आला था,
खेल चिखिद्दी वाला था।
हम बागों में होते थे,
बीज प्यार के बोते थे।
ऊंच-नीच का भेद न था,
भावों में विच्छेद न था।
हम सब अपने गांवों में,
थे बगिया की छांवों में।
मटरू,भुट्टन, राजकुमार,
एक सरीखा सबको प्यार।
जिसकी बगिया, ललचाता,
सींकरि कल्लू ले जाता।
मन की शहजादी बगिया,
थी समाजवादी बगिया ।
प्यार पिता-सा पाते थे,
अमराई जब जाते थे।
मीठे-मीठे लाल-गुलाबी,
तरुवर आम खिलाते थे।
हवा गरम हो जाती थी,
लू से हमें डराती थी।
शीतल मंद बयार लिए,
मौसी-मां-सा प्यार लिए।
निमिया हमें बुलाती थी,
हर गर्मी हर जाती थी।
अभी भी नहीं भूले हैं,
जी भर झूला झूले हैं।
बगिया में जो जामुन थी,
सभी दवाओं की धुन थी।
हम सब छककर खाते थे,
मन से नहीं अघाते थे।
शूगर कभी न होने दी,
नहीं भूख से रोने दी।
सारी पब्लिक खाती थी,
कभी न बेंची जाती थी।
आंवला औषधि देता था,
शुल्क नहीं वह लेता था।
कटहल कुछ कम होते थे,
मगर नहीं गम होते थे।
जब भी काटे जाते थे,
हर घर बांटे जाते थे।
महुआ पीले-पीले थे,
मीठे रस से गीले थे।
बड़े हुए तो बांट दिए,
हम पेड़ों को काट दिए।
दर्द सह रही घाव की,
बगिया मेरे गांव की।
— सुरेश मिश्र