गजल
रखना संभल के पाँव, पटा धुंध से शहर है।
अब आदमी कहाँ रहा, हैवान का कहर है।
ये नोंच लेगें बोटियां, नरनुमा अमानुष।
रक्खो छुपा के हुस्न, दरिन्दों का शहर है।
हिस्सों में है जज्बात, जब हो जिस्मफरोशी ।
दंगा है, लूटपाट है, जंगल सा शहर है।
हर चौक पर नेता हैं, और गुंडे शहर में।
खुद्दार अब बचे कहाँ?, चमचों का शहर है।
टुकड़ों में बंट गये हैं, कलमकार शहर के ।
इन नीले कंठ वालों के, गले में जहर है।
— शिवनन्दन सिंह