ग़ज़ल
इक रोज़ कहीं गुज़र न जाऊँ
मैं प्यार बग़ैर मर न जाऊँ
मैं प्यार बग़ैर मर न जाऊँ
बस एक निगाह पुरमुहब्बत
फिर देख अगर सँवर न जाऊँ
तू याद मुझे सदा रहेगा
मैं यार तुझे बिसर न जाऊँ
वो भी कि ज़बान ही चलाते
मैं भी कि निबाह पर न जाऊँ
आराम हराम हो गया है
बेचैन बवाल कर न जाऊँ
बन्दूक़ समक्ष शेरदिल मैं
खरगोश समान डर न जाऊँ
सब भीड़-भरे नगर बुलाते
मैं छोड़ विरान घर न जाऊँ
— केशव शरण