घूरे बाबा गांव के
सारे कचरे खा जाता था,
गोबर सभी पचा जाता था।
सड़ा गला भोजन जो दे दो,
बिन बोले निपटा जाता था।
करता था यूं जादू टोना,
कचरा लेकर देता सोना।
पकड़ बाग या घर का कोना,
कभी न रोया दुख का रोना।
वह खेतों का मान बढ़ाता,
फसलों को ऊर्जा दे जाता।
बंजर में भी मिल जाए तो,
उर्वरता दिल में भर जाता।
ना वह काशी,ना वह काबा,
ना वह होटल ना वह ढाबा।
फिर भी दादी सदा पूजती,
दीप जलाकर घूरे बाबा।
कभी न बंजर किया भूमि को,
हरदम ऊर्जा दिया भूमि को।
हक न समझता कभी बपौती,
पूरण करता सभी मनौती।
कोई उत्सव या दीवाली,
पूजा करती थी घरवाली।
कभी नहीं इतराया घूरा,
अपना फर्ज निभाया घूरा।
कोहड़ा,लौकी या सरपुतिया,
देता था झपिया का झपिया।
फागुन के दिन आ जाते थे,
हम बिल्कुल ना शरमाते थे।
लेकर झउआ,पलरी,बोरी,
जाते हम घूरे की ओरी ।
जो भी उसके दर पर जाता,
झोली भर भर खाद लुटाता।
पापा,चाचा सारे भाई,
करते थे सब लोग खुदाई।
देता था वह भर भर दोना,
खाद नहीं खेतों का सोना।
हरदम वह कम्पोस्ट बनाए,
मानव को जीना सिखलाए।
भुवरा कोहड़ा उपजाता था,
बिन बोए फल दे जाता था।
आज यूरिया शान दिखाए,
‘एनपीके’ सबको धमकाए।
बड़ी बड़ी लाइन जिरात में,
लड़ते हैं हम बात-बात में।
जब घूरे बाबा क साथ था,
अपना ही कर जगन्नाथ था।
पैदा थोड़ा कम होता था,
मगर न कोई गम होता था।
बीमारी गण रास रचाते,
शूगर,बीपी पास न आते।
कहीं न स्यापा दिखता था,
नहीं मोटापा दिखता था।
मोह घूर से तोड़ लिए,
उसे पूजना छोड़ दिए।
जीवन की नस काट दिए,
हम घूरों को पाट दिए।
हम पुरखों के वादों को,
बेंच दिए मरजादों को।
खाद रसायन वाला है,
तन गोरा,हिय काला है।
चलता है लेकर आरी,
देता जग की बीमारी।
घूरा रोवे खाईं में,
छुप छुप कर तन्हाई में।
सुख,दुख दिन या रातों में,
शामिल था जज्बातों में।
फिर हमको क्यों हूल गए,
किस गलती पर भूल गए?
हमने कभी न रोग दिए,
हरदम छप्पन भोग दिए।
जबसे घूरे रूठ गया,
भाग्य हमारा फूट गया।
दादी हमें बताती है
घूरे की याद आती है।
घूरे फिर से आओ न,
तन निरोग कर जाओ न।
— सुरेश मिश्र