‘मुझे सब याद है’ में समरसता का संदेश
लोकजीवन से खाद–पानी, रस–राग और मिट्टी की सोंधी गंध ग्रहण कर अपनी कथाकृतियों को आकार देनेवाले हिंदी के वरिष्ठ कथाकार जयराम सिंह गौर की औपन्यासिक कृति ‘मुझे सब याद है’ में अद्भुत पठनीयता है I अपनी रोचकता के बल पर यह उपन्यास पाठकों को आरंभ से अंत तक बांधे रखता है I उपन्यास का केंद्रीय विषय अंतर्जातीय विवाह और जाति विमर्श है I उपन्यास में अंतर्जातीय विवाह से जुड़ी अनेक सामाजिक समस्याओं की पड़ताल की गई है और सामाजिक विसंगतियों-विडंबनाओं को रेखांकित किया गया है I जाति भारत की एक नंगी सच्चाई है जिससे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है I आजकल जाति के नाम पर समाज को विभाजित करने का राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र चल रहा है I ऐसे विभाजनकारी समय में ‘मुझे सब याद है’ जैसी कृतियों का महत्व बढ़ जाता है I यह उपन्यास विघटनकारी समय में समरसता के शीतल अवलेप की तरह है I इस उपन्यास में फ्लैशबैक में कई अवांतर कथाएँ चलती हैं और सामाजिक विसंगतियों व जातीय वैमनस्य की परतें खोलती हैं I फ्लैशबैक में बृजेश को अपनी पत्नी रंजना के साथ किए गए अपराध और अन्याय याद आते हैं I उनका अपराध-बोध उनको धिक्कारता रहता है कि उन्होंने जातीय अहंकार और कुलीनता के मद में रंजना व उसके परिवार को स्वीकार नहीं कर बहुत बड़ा पाप किया है I कुलीनता के अहंकार के कारण उन्होंने रंजना को अवसाद में धकेल दिया I सेवानिवृत्त हो जाने और उम्र के अंतिम पड़ाव पर आ जाने के बाद वे पश्चाताप की अग्नि में निरंतर जलने लगे I उनका अतीत उन्हें चैन से बैठने नहीं देता था I उनकी पुत्री अवंती उन्हें आईना दिखाती है तो उन्हें अपने अपराध का एहसास तो होता है, लेकिन उनका झूठा अहंकार आड़े आ जाता है I अंत में उनका ह्रदय परिवर्तन होता है और रंजना के परिवार को अपना लेते हैं I इस उपन्यास में बृजेश के अंतर्द्वंद्व, ऊहापोह और मिथ्या अहंकार का प्रभावशाली चित्रण किया गया है I नारी उनके लिए केवल भोग्या है I उन्होंने रंजना को तिल-तिलकर मरने के लिए छोड़ दिया I कुलीनता के अहंकार ने उसकी आँखों पर पट्टी बाँध दी थी I रंजना बहुत सुन्दर थी और बृजेश के साथ वह भी आई.ए.एस. ट्रेनी थी I बृजेश ने उसे अपने जाल में फँसा लिया I रंजना गाँव की भोलीभाली लड़की थी I बृजेश ने सोच रखा था कि अपनी वासना का शिकार बनाकर वे रंजना को छोड़ देंगे, लेकिन अनचाहा गर्भ ठहर जाने के कारण मजबूरीवश उन्हें शादी करनी पड़ी I बृजेश इस उपन्यास के गतिशील पात्र हैं और उनके चरित्र में आए परिवर्तन के प्रत्येक आयाम को उपन्यास की कथा रेखांकित करती है I उनके मानसिक द्वंद्व, छटपटाहट, उलझन और हलचल के कारण पाठकों को उनका चरित्र सजीव लगता है I बृजेश की पुत्री अवंती कैलाश से प्रेम करती थी, लेकिन उनका कुलीनता-बोध पुनः हावी हो गया और कैलाश के साथ भी उन्होंने छल किया I अवंती की सूझबूझ से कैलाश अवसाद में जाने से बच गया I कैलाश इस उपन्यास का नायक है I वह एक समझदार और सुलझा हुआ युवक है जो रिश्तों और मानवीय मूल्यों को महत्व देता है I वह हरिजन है, लेकिन अपनी जाति को लेकर उसमें कोई हीनता-बोध अथवा कुंठा नहीं है I उसका मन निर्मल है और उसके मन में सवर्णों के प्रति कोई नफरत का भाव नहीं है I इसलिए जब प्रतीक उसे हरिजन एसोसिएशन का सदस्य बनने की सलाह देता है तो वह इंकार कर देता है I वह कहता है-“हम लोग सवर्णों को कोसते हैं, पर हकीकत यह है जो भी अपनी जाति के लोग उन्नति कर जाते हैं उन्हें अपनी जाति वालों से बदबू आने लगती है, वह अपनी औकात भूल जाते हैं I”
अवंती बृजेश की पुत्री थी I वह साहसी और परिपक्व नारी थी I मानवीय मूल्यों में उसकी दृढ आस्था थी I वह बृजेश की चालबाजी और धूर्तता से अवगत थी I अवंती की बुद्धिमत्ता के सामने बृजेश हर बार परास्त हो जाते थे I अवंती ने कहा-“पापा आपने यह अच्छा नहीं किया, आप में जब समाज का सामना करने का साहस नहीं था तो आपने विजातीय शादी क्यों की ?” चंद्रपाल सिंह उपन्यास के प्रमुख पात्र हैं और उनमें ईमानदारी, करुणा और मानवता कूट-कूट कर भरी है I वे हर बार कैलाश, मखोले और सरबतिया को मुश्किल हालातों से निकालते हैं और उनका मार्गदर्शन करते हैं I कैलाश को आई.ए.एस. बनाने में उनका प्रमुख योगदान था I प्रस्तुत उपन्यास की संवाद शैली बहुत प्रभावशाली है I निम्नलिखित कथोपकथन बृजेश और अवंती के चरित्र और उनकी मानसिकता का उद्घाटन करता है I बृजेश सामंती मानसिकता से ग्रस्त एक स्वार्थी व आत्मकेंद्रित चरित्र हैं जबकि उनकी पुत्री अवंती उदार व उदात्त नारी है जो प्रत्येक व्यक्ति को सम्मान देती है चाहे वह घर के नौकर-चाकर ही क्यों न हों-
अब उन्हें महँगू की बहुत याद आने लगी I सुबह उन्होंने अवंती को फोन करके महँगू के बारे में पूछा ‘महँगू तुम्हारे पास है क्या ?’
‘हाँ है, क्या बात है ?’
‘उसे मेरे यहाँ भेज दो I’
‘क्यों महँगू कोई सामान है क्या, जब मर्जी आई रख लिया जब मन आया फेंक दिया I यदि वह चाहेगा तभी आएगा I उसका भी अपना सम्मान है I’ अवंती ने तेजी से कहा I
‘अच्छा नौकरों का भी सम्मान होता है I’ बृजेश ने और तेजी से कहा I
‘हाँ क्यों नहीं होता है, क्या वह आदमी नहीं होते हैं ?’
‘मुझे सब याद है’ में मानव मनोविज्ञान का प्रभावशाली चित्रण किया गया है I एक उदाहरण द्रष्टव्य है-“चंद्रपाल सिंह सोचने लगे मानव मन भी अजीब होता है जब मकान नहीं था तब उसके सपने देखता था अब मकान हो गया तो फिर अतीत की तरफ भागता है I” इस उपन्यास में समकालीन सामाजिक और राजनैतिक जीवन अपनी समस्त विडम्बनाओं एवं खूबियों के साथ अभिव्यक्त हुआ है I उपन्यास में सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक विसंगतियों की चीरफाड़ की गई है I देश आज़ाद तो हो गया, लेकिन गाँवों में विकास की किरणें नहीं पहुँची हैं अथवा समृद्धि कुछ घरों में ही कैद हो गई है I जागरूक नागरिक मोहभंग की स्थिति से गुजर रहा है I उपन्यासकार की यह टिप्पणी आम भारतवासियों के मोहभंग की अभिव्यक्ति है-‘बड़ी हैरत की बात है कि देश को आज़ाद हुए इतने साल हो गए पर इनके जीवन में कोई सुधार नहीं हुआ I लगता है किसी ने इस ओर सोचा ही नहीं I’ इसका कथा-विन्यास आम जनजीवन से प्रेरित है I इसमें आधुनिक जीवन के संत्रास और मानव की बेचारगी को चित्रित किया गया है I यह एक सुखांत उपन्यास है जिसका अंत सकारात्मक संदेश के साथ होता है I उपन्यासकार को जब भी अवसर मिला है उसने प्रकृति का मनोरम चित्र उपस्थित किया है I इस उपन्यास में अनेक स्थलों पर पाठकों का प्रकृति से साक्षात्कार कराया गया है I उपन्यास में पहाड़ों के सौंदर्य का मनोहारी चित्रण किया गया है-‘जब गाड़ी देहरादून के लिए चली तो रास्ते की वन-संपदा देखकर वह चकित था I बड़े-बड़े पहाड़ और उन पर आकाश से बातें करते इतने बड़े-बड़े पेड़ सब कुछ अद्भुत I’ उपन्यास में कृषि और मत्स्यपालन की बारीकियों का भी विवेचन किया गया है I इससे विदित होता है कि उपन्यासकार को खेती-किसानी का गहन ज्ञान है I कोई भी उपन्यासकार अपनी कृतियों द्वारा पाठकों का केवल मनोरंजन ही नहीं करता, बल्कि प्रकारांतर से अपने विचारों को प्रक्षेपित भी करता है I ‘मुझे सब याद है’ में उपन्यासकार का उद्देश्य समाज में समरसता का संचार करना है I एक ऐसा समाज जहाँ कोई जातीय विद्वेष नहीं हो, कुलीनता का मिथ्या अहंकार नहीं हो, जातीय विभाजन और उच्च-नीच का भेदभाव नहीं हो I उपन्यास में अंतर्जातीय विवाह की वकालत की गई है ताकि देश की एकता का आधार सुदृढ़ हो I उपन्यासकार ने स्वामी विवेकानंद को उधृत करते हुए जातिवाद से झुलसते हुए समाज को एक समाधान दिया है-“उसको स्वामी विवेकानंद से पूछा गया एक सवाल याद आया I जिसमें उनसे पूछा गया था कि आजकल हरिजन इतना उग्र क्यों है, पहले भी तो हरिजन थे वह इतने उग्र क्यों नहीं थे I तब उन्होंने बताया था कि पहले जमाने में जो हरिजन पढ़-लिख जाता था उसे ब्राह्मण बना लेते थे I जिस मनुवाद को सब हरिजन पानी पी-पीकर के गरियाते हैं उस जमाने में यह व्यवस्था थी I”
पुस्तक-मुझे सब याद है
लेखक-जयराम सिंह गौर
प्रकाशक-के.एल.पचौरी प्रकाशन, गाज़ियाबाद
वर्ष-2022
पृष्ठ-144
मूल्य-350/-