ग़ज़ल
सुख की चाह अगर है तो फिर तपना पड़ता है ।।
हर मौसम की हर सूरत को सहना पड़ता है ।।
रिश्ता कायम रखने को सब सहना पड़ता है ।।
कभी कभी सच्चा होकर भी झुकना पड़ता है ।।
रिश्तों के दरमियां दरारें और न बढ़ पाएं,,
अक्सर सब सुनकर भी बहरा बनना पड़ता है ।।
सब कुछ आसां हासिल होगा ऐसा कब मुमकिन,,,
अपने हक की खातिर अक्सर लड़ना पड़ता है ।।
ख्वाबों को बुनना फिर उनको पूरा करने को,,,
कभी कभी तो खुद से खुद ही लड़ना पड़ता है ।।
अपने हैं लेकिन कब बढ़ कर दर्द समझते हैं,,
खुद ही सुख दुख हॅस हॅस रो रो सहना पड़ता है ।।
कुछ तो लोकाचार और कुछ मान भी रखने को,,
वेमन से भी साथ में अक्सर चलना पड़ता है ।।
— समीर द्विवेदी नितान्त