गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

आवाज़ भी खोई हुई, सबका गला बैठा हुआ।
सच को भला बतलाऐगा क्या आईना टूटा हुआ,

पेड हैं चंदन के सब पर खुश्बुऐं ये क्या करें,
जब हर तने पर आज भी है कोबरा लिपटा हुआ।

यूँ तो है लंबी खूब फिर भी क्यूंँ यहाँ हर आदमी,
कुछ ही पलों की ज़िंदगी में रह गया सिमटा हुआ।

लहरों में जिसकी हैं किनारे और हैं मंझधार भी,
वो इक समंदर आज भी भीतर मेरे बहता हुआ।

कल तक गुलाबों की बडी नज़दीकियाँ काँटों से थी,
फिर क्यूँ चुभन के जख़्म से है आज खूँ रिसता हुआ।

मुश्किल जहांँ पर हो गया है आज मुस्काना बहुत,
तुमको वहाँ पर ‘जय’ मिलेगा हर घडी हंसता हुआ।

— जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से