दोहे “गर्दन पर हथियार”
परम्पराएँ मिन्न हैं, लेकिन हम सब एक।
कोई पेड़ा खा रहा, कोई खाता केक।।
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खाने-पीने के लिए, सबके अपने तर्क।
बीयर मांस-शराब को, समझ रहे मधुपर्क।।
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कोई झटका कर रहा, कोई करे हलाल।
दोनों की ही रीत पर, उठते बहुत सवाल।।
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शाकाहारी जीव की, गर्दन पर हथियार।
केवल रसना के लिए, करते लोग प्रहार।।
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कुर्बानी का आजकल, मतलब बिल्कुल साफ।
अपनी गर्दन को सभी, कर देते हैं माफ।।
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बन्द करो अब देश से, ऐसे सभी रिवाज।
कट्टरता अपराध है, कहता यही समाज।।
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मानव मानव ही रहे, यही सिखाता धर्म।
मानव जैसी की रहें, मानवता के कर्म।।
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(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)