मज़हबी सिद्धांत की प्रचलित प्रथाओं के उलट
मज़हबी सिद्धांत की प्रचलित प्रथाओं के उलट
चल पड़े किन रास्तों पर हम दिशाओं के उलट
हर तरफ़ उन्माद हर सू बढ़ रही हैं नफ़रतें
प्रेम की सदभाव की परिकल्पनाओं के उलट
की सियासत ने शुरु जब से तिजारत धर्म की
हो गया शैंतान इंसां आस्थाओं के उलट
धर्मों से उम्मीद क्या क्या थी जहां की क्या कहें
धर्म क्या क्या हो गये अवधारणाओं के उलट
वे जिन्होंने ज़ुल्म की हद पार की, हर बार की
पा रहे हैं वे बशर पदवी सज़ाओं के उलट
लोग वे ही दर्ज़ हैं इतिहास की तारीख में
जो चले हर हाल दरबारी हवाओं के उलट
सोचता हूँ जो कभी हमराज़ हमदम थे वही
बे वफा क्यूँ हो गये इतनी वफ़ाओं के उलट
सतीश बंसल
१५.१२.२०२२