कविता
माँ,
हम सबके जीवन में इतने ड्रामा क्यों होते हैं ?
एक औरत अपनी जिंदगी क्यों नहीं जी सकती ?
क्यों कदम कदम पर इतनी परीक्षाएं देनी होती हैं ?
एक पल में हँसना !
एक पल में रोना ,
कैसा है जिंदगी का
अजनबी से फसाना
तुम आज चुप क्यों हो
बोलती क्यों नहीं ?
तुम आज इतनी खुश क्यों हो
जरूर कुछ दाल में काला है ?
खामोशी ही ठीक थी मेरी ,
आज मैं बोलती क्यों हूँ ?
आँसूं ही लगते हैं अच्छे
मेरे गालों पर ,हँसी क्यों नहीं ।
ओढ़ ली थी जब चादर उदासी की
तो कहते थे चुप मत रहा करो
आज हँसने लगी
तो तनाव क्यों
क्या गुड़िया हूँ मैं मिट्टी की
जिसका कोई वजूद न था ,न है ।
क्या मैं इंसान नहीं ,
एक कठपुतली हूँ ?
जब कोई आये उसके इशारों पर
खुद को भी भुला दो #
क्योंकि मैं सिर्फ एक गृहणी हूँ ,
जिसकी कभी कोई इज्जत नहीं ।
क्यों चुभता है आजकल तुम्हें
मेरा खुद में ही मगन रहना ?
क्यों नहीं याद आया तुम्हें ,
वो मेरा घँटों तन्हा रहना
सफेद कागज पर जब भी
लिखना चाहा दर्द यूँ मेरा ।
किसी को भी रास न आया
क्यों मेरा रंगीन रहना
घोट कर गला अपने अरमानों का
सबमें खुद को ढाल लिया #
जाने क्यों दिल करने लगा जिद
फिर से याद बीते दिनों का अफसाना।
जीना चाहती हूँ मैं भी स्वच्छंद
पंछियों की उड़ान के साथ ।
खिलना चाहती हूँ मैं भी भोर
के सूर्य की किरणों के साथ ।
हाँ मैंने माना मैं एक औरत हूँ ,
तो क्या हुआ क्या मेरी कोई इच्छा नहीं ?
मैंने माना मैं आज भी ,मैं नहीं ।
आज भी गुलाम हूँ सिर्फ पुरुष की ।
अहम जाग ही जाता है वर्षों बाद ,
पुरुष होने के स्वाभिमान का ।
दंभ आ ही जाता है युगों बाद ,
पुरुषोचित व्यवहार दिखाने का ।
तुम जितना मुझे रोकोगे ,
उतनी ही मैं मजबूत बनती जाऊंगी ।
जितना रुलाओगे हर पल ,
उतना ही हिम्मत भरती जाऊँगी ।
आज नारी अबला नहीं ,
वो जाग रही है नई उम्मीदों के साथ ।
रामायण की सीता भी है ,
तो महाभारत की द्रौपदी भी ।
पाषाण की मूरत है तो ,
शबरी की जैसी भक्त भी ।
मीरा भी है कृष्ण की ,
तो कान्हा की राधा भी ।
सोचो जरा न होगी जब नारी ,
कैसे वजूद पाओगे ।
बिखर जाओगे तुम हमेशा ,
जब खुद को अकेला पाओगे ।
बहक जाते हो सुरा और सुंदरी में ,
मचल जाते हो अदा और पंसुरी में ।
अतीत में जाकर अपना भी वजूद देखो ,
याद आ जायेगी कहानी अपने अस्तित्व की
याद आ जाएगा स्त्री बिना बचपन अपना ।
— वर्षा वार्ष्णेय