अजनबी
अजनबी तेरे उस गाँव में
मिले थे कभी पीपल छाँव में
बैठ करते थे प्रेम की सब बातें
कट जाती थी वक्त गिन रातें
वो तेरा आँचल का लहराना
जुल्फों को काँधों पे बिखराना
गलियों में तेरा वो आना जाना
मूक प्रेम की भाषा को समझाना
नदियों के तट पर बैठ बतियाना
तेरी गोद में सर रख सो जाना
प्रेम की पैगाम को लिख जाना
फिजां में मस्ती का घुल जाना
चर्चा होती थी अपनी प्रेम गलियों में
खेत खलिहान में सखी सहेलियों में
घिर जाते थे तेरे गाँव की सब बैरी
फिर भी ना टुटा था प्रेमी का चेरी
वो यादें अब ख्वाब बन छुप आया
हमारा प्रेम का फासला बढ़ आया
ना तुम कभी बनी मेरी दुल्हन
तन्हा रह गया अपना जीवन
अय रब जब अगला जन्म पाऊँ
अपनी रहबर को साथ मैं पाऊँ
लिख देना तुम वो फरमान
बन जायें दो प्रेमी एक जान
— उदय किशोर साह