कविता
अन्तर्मन में व्यथा बहुत थी, बाहर हल को खोज रहा था,
भीतर के पट खोल जो देखा, हर उलझन का हल पाया था।
भटक रहा था जंगल जंगल, कस्तुरी की चाह बहुत थी,
कस्तुरी तो भीतर ही है, इसका हमको पता नहीं था।
दूध दही मक्खन का नाता, गुरू बिन ज्ञान कहाँ से पाता,
मक्खन की चाह में भटका, दूध में मक्खन ज्ञान नहीं था।
वेद पुराणों ने बतलाया, हर रज कण में ईश्वर बतलाया,
अहंकार का लगा था चश्मा, सच का हमको पता नहीं था।
सुख की अभिलाषा में हमने, निज सुख को ही त्याग दिया,
भौतिक सुख को समझ रहे सुख, सुख का आभास नहीं था।
परिवार संग ख़ुश हो रहना, संतुष्टि ही सर्वोत्तम गहना,
स्वस्थ रहें तन निर्मल हो मन, सुख का सार गहा नहीं था।
— अ कीर्ति वर्द्धन