ग़ज़ल
यूँ ही कोई रस्म निभाने के लिए मत आना
मुझपे एहसान जताने के लिए मत आना
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दरार जिनसे पहले भी पड़ी थी रिश्ते में
वही बातें दोहराने के लिए मत आना
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हाथ तुम थाम नहीं सकते अगरचे मेरा
सोए जज़्बात जगाने के लिए मत आना
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दिल-ए-बेताब बड़ी मुश्किलों से संभला है
फिर कोई ख्वाब दिखाने के लिए मत आना
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जुदाई दोबारा न बर्दाश्त कर सकूँगा मैं
अब के जो आना तो जाने के लिए मत आना
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।