ग़ज़ल
ना चाँद सजाया माथे पर ना दामन भरा सितारों से
जज़्बा-ए-इश्क लिए दिल में हम खेले हैं अंगारों से
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रंग भरे हैं तस्वीरों में गम के भी, खुशी के भी
जागी हुई उम्मीदों से कभी दिल में उठे गुबारों से
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हंसके मिले सभीसे जो भी मिला राह में भला-बुरा
चार दिनों की ज़िंदगी है क्या पा लेते तकरारों से
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इस दौर-ए-तग़य्युर में हमने ऐसे भी मंज़र देखे हैं
चोट लगी जब फूलों से और ज़ख्म भरे हैं खारों से
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करते नहीं तेरी वाह-वाह भले हर बात पर लेकिन
रौनक है तेरी महफिल की हम जैसे खुद्दारों से
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जज़्बातों को पिघलाकर अल्फाज़ बनाने पड़ते हैं
शायरी नहीं है शै ऐसी जो मिल जाए बाज़ारों से
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।