ग़ज़ल
इश्क से चोट लगती है हया से चोट लगती है,
मेरे टूटे हुए दिल को वफा से चोट लगती है,
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तबस्सुम लब पे हो और आस्तीनों में छुपे खंजर,
ज़माने की मुझे ऐसी अदा से चोट लगती है,
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जड़ों से जो जुड़े हों आंधियां भी झेल लेते हैं,
मैं टूटा फूल हूँ मुझको हवा से चोट लगती है,
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बिना तेरे नहीं कटती है मेरी ज़िंदगानी अब,
मुझे लंबी उमर की बददुआ से चोट लगती है,
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मिट्टी में मिला डाली जिसकी अस्मत दरिंदों ने,
उस मासूम बच्ची को हिना से चोट लगती है,
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दूरियां जीत जाती हैं जिदों की जंग में अक्सर,
अपनों की बेमतलब अना से चोट लगती है,
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।