गीतिका
पौष मास की सर्द रात है।
ओढ़े सित चादर प्रभात है।।
धूप गुनगुनी दिन में भाती,
होता निशि में तुहिन पात है।
तन में चुभते तीर शीत के,
सी-सी करती शिशिर- वात है।
निर्मल मन के धारक कितने,
जन-जन में कटु भितरघात है।
गेंदे , पाटल , सूरजमुखियाँ,
सुरभि-सुगंधित-सुजन -गात है।
फूल-फूल पर तितली भौंरे,
प्रकृतिजन्य शुचि करामात है।
‘शुभम्’ बदलते ऋतुएँ मौसम,
हर परिवर्तन समय-जात है।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’